Saturday 1 August 2020

‘दिव्यांगों को अनुसूचित जाति-जनजाति के समान आरक्षण’


(इस फैसले से दिव्यांगों की सामाजिक स्थिति को मजबूती मिलेगी, शिक्षा या रोजगार के लिए खुलेंगे नए रास्ते )

----प्रियंका सौरभ 

हमारे भारत का संविधान हम सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता, न्याय व गरिमा का रक्षक है और यह  दिव्यांग को समाज में समानता  पर जोर डालता है। वर्तमान  वर्षों में विकलांगों के प्रति समाज का नजरिया तेजी से बदला है। सही भी है अगर विकलांग व्यक्तियों को समान अवसर तथा प्रभावी पुनर्वास की सुविधा मिले तो वे बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

भारत की जनगणना 2001 के मुताबिक, देश में 2.19 करोड़ व्यक्ति विकलांगता के साथ जीवन यापन कर रहें है, जो कुल जनसंख्या का 2.13% हिस्सा है। इनमे से 75% विकलांग व्यक्ति ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, तथा 49% विकलांग व्यक्ति साक्षर हैं व 34% रोजगार प्राप्त हैं। हाल ही में  विकलांगता से पीड़ित लोग समान लाभ और आराम के हकदार हैं इसलिए  उनकी सामाजिक स्थिति को मजबूती और शिक्षा या रोजगार के लिए इनको अनुसूचित जाति में बराबर लाभ का अधिकारी बनाया है




हमारे राज्य नीति (डीपीएसपी) के निदेशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता की सीमा के भीतर, बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता के मामलों में काम करने, शिक्षा के अधिकार और सार्वजनिक सहायता के लिए प्रभावी प्रावधान करेगा।  विकलांगों और बेरोजगारों की  राहत का विषय ’संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में निर्दिष्ट है।

इससे पूर्व  दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2012 में  फैसला किया था कि “विकलांग लोग सामाजिक रूप से भी पिछड़े हैं, और इसलिए, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति को दिए गए समान लाभ के हकदार हैं। देश भर के शैक्षणिक संस्थानों में जब अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को प्रवेश के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए कुछ निश्चित अंकों की छूट मिलती है, तो वही छूट विकलांग उम्मीदवारों पर भी अब  लागू होगी।

उच्च न्यायालय के समक्ष 2012 के मामले में ये फैसला तब आया जब  एक विश्वविद्यालय ने अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम पात्रता आवश्यकता में 10% रियायत और विकलांग आवेदकों के लिए 5% रियायत की अनुमति दी थी। उच्च न्यायालय ने इसे भेदभावपूर्ण करार देते हुए  फैसला सुनाया।

वैसे भी  विकलांग लोगों को उचित शिक्षा प्रदान किए बिना, "संविधान के तहत और उसके बाद 1995 के कानून में विकलांगों को समान अवसर प्रदान करने और उनके अधिकारों की रक्षा करने" पर उनके अधिकारों का कोई सार्थक प्रवर्तन नहीं हो सकता है। यह संघ का कर्तव्य बनता है, राज्यों के साथ-साथ केंद्र शासित प्रदेशों को भी  ये मामला उठाना चाहिए।

अब विकलांगों के प्रकार को 7 से बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। इस अधिनियम में मानसिक बीमारी, आत्मकेंद्रित, स्पेक्ट्रम विकार, सेरेब्रल पाल्सी, मांसपेशियों की डिस्ट्रोफी, पुरानी न्यूरोलॉजिकल स्थितियां, भाषण और भाषा की विकलांगता, थैलेसीमिया, हेमिलीलिया, सिकल सेल रोग, बहरे सहित कई विकलांगता शामिल हैं। अंधापन, एसिड अटैक पीड़ित और पार्किंसंस रोग जिसे पहले के अधिनियम में बड़े पैमाने पर अनदेखा किया गया था। इसके अलावा, सरकार को किसी अन्य श्रेणी को निर्दिष्ट विकलांगता को सूचित करने के लिए अधिकृत किया गया है।

यह सरकारी नौकरियों में 3% से 4% और उच्च शिक्षा संस्थानों में 3% से 5% तक विकलांग लोगों के लिए आरक्षण की पैरवी करता है। 6 और 18 वर्ष की आयु के बीच बेंचमार्क विकलांगता वाले प्रत्येक बच्चे को मुफ्त शिक्षा का अधिकार होगा। सरकारी वित्तपोषित शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थानों को समावेशी शिक्षा प्रदान करनी होगी।

एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन के साथ निर्धारित समय सीमा में सार्वजनिक भवनों में पहुंच सुनिश्चित करने के लिए जोर दिया गया है। विकलांग व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्त विनियामक निकायों और शिकायत निवारण एजेंसियों, अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी के रूप में कार्य करेंगे। विकलांग व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए एक अलग राष्ट्रीय और राज्य कोष बनाया जाएगा।

भारत में विकलांगों के लिए सुलभ भारत अयान भिसंजीवनी बनकर उभरा है, ये अभियान विकलांग व्यक्तियों को समान अवसर के लिए पहुँच प्राप्त करने और स्वतंत्र रूप से  जीवन के सभी पहलुओं में पूरी तरह से भाग लेने में सक्षम करेगा। ये अभियान विकलांगो के लिए उचित वातावरण , परिवहन प्रणाली और सूचना और संचार पारिस्थितिकी तंत्र की पहुंच बढ़ाने पर लक्षित है।

कई लोग सोचते हैं कि आरक्षित श्रेणियों के तहत चुने गए व्यक्ति, विशेष रूप से अलग-अलग एबल्ड श्रेणी के तहत, मेधावी उम्मीदवार नहीं हैं और उनका चयन उन संस्थानों की गुणवत्ता में कमी लाता है, जिनमें उनका चयन किया जाता है। यदि यह मानसिकता बनी रहती है, तो हमें उम्मीद करनी चाहिए कि विकलांगता आरक्षण का प्रणालीगत उल्लंघन जारी रहेगा। 2016 के कानून ने विकलांगों के लिए कोटा को 3% से बढ़ाकर 5%  करने की मांग की और निजी क्षेत्र के लिए भी उन्हें नियुक्त करने के लिए परिकल्पना की। आज सबसे ज्यादा और देश हित में  यह महत्वपूर्ण है कि आबादी के इस महत्वपूर्ण खंड को सामाजिक और आर्थिक उन्नति से न छोड़ा जाए।

हमारा विचार है कि उच्च न्यायालय इस  पहलू पर सही है।  उच्च न्यायालय ने सही ढंग से माना है कि दिव्यांग लोग भी सामाजिक रूप से पिछड़े हैं, और इसलिए, कम से कम,वो अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के समान लाभ के हकदार हैं। इसके साथ-साथ हर पांच साल में राष्ट्रीय नीति के  तहत विकलांगो की सुविधाओं की समीक्षा की जनि चाहिए। एक  क्रियान्वयन दस्तावेज  तैयार किया जाये तथा पांच सालों के लिए एक रोडमैप का निर्माण किया जाए, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन में संपन्न किया जाए। राज्य नीति तथा कार्य योजना के लिए राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से विकलांगो हेतु स्पेशल नीति पर सरकार विशेष प्रोत्साहन को बढ़ावा दे।
-- 

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

No comments:

Post a Comment

 Journalism running behind the news needs some red light. (What kind of journalism if the first news of any media institution does not bring...