Friday 31 July 2020

लॉकडाउन में शिक्षा: अवसर और चुनौतियां



---------------- ---प्रियंका सौरभ   
मार्च के दूसरे सप्ताह में, देश भर की राज्य सरकारों ने कोरोनवायरस के प्रसार को रोकने के लिए एक उपाय के रूप में स्कूलों और कॉलेजों को अस्थायी रूप से बंद करना शुरू कर दिया था। आज दो महीने के बाद भी कोई निश्चितता नहीं है कि स्कूल फिर से कब खुलेंगे। स्पष्ट है कि वर्तमान शैक्षिक सत्र पारंपरिक रूप से स्थापित मानदंडों के आधार पर पूरा नहीं किया जा सकता है तब नीति नियंताओं ने इसके दूरगामी असर का अनुमान लगा लिया था और वैकल्पिक मॉडल पर काफी पहले कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। आज अध्ययन एवं अध्यापन के डिजिटल स्वरूप को मान्यता  प्रदान की गई है। कक्षा में आमने-सामने के संप्रेषण का स्थान इंटरनेट, मोबाइल, लैपटॉप आदि पर आभासी कक्षाओं ने ले ली है। 




जूम, सिसको वेब एक्स, गूगल क्लासरूम, टीसीएस आयन डिजिटल क्लासरूम आदि ने लोकप्रियता के आधार पर शिक्षा जगत में अपना-अपना स्थान बनाना प्रारंभ कर दिया है। शिक्षा क्षेत्र के लिए यह महत्वपूर्ण समय है। स्कूल बंद होने से न केवल सीखने की निरंतरता पर अल्पकालिक प्रभाव पड़ेगा, बल्कि इसके दूरगामी परिणाम भी होंगे। शिक्षण और मूल्यांकन के तरीकों सहित स्कूली शिक्षा की संरचना पहले से ही ऐसी रही है कि कुछ ही निजी स्कूल ऑनलाइन शिक्षण विधियों को अपना सकते थे। दूसरी ओर,  कम आय वाले निजी और सरकारी स्कूलों ने ने ई-लर्निंग  तक पहुंच नहीं होने के लिए पूरी तरह से बंद कर दिया है।

स्कूल और विश्वविद्यालय बंद होने से न केवल भारत में 285 मिलियन से अधिक युवा शिक्षार्थियों के लिए सीखने की निरंतरता पर अल्पकालिक प्रभाव पड़ेगा, बल्कि इसके दूरगामी आर्थिक और सामाजिक परिणाम भी सामने आएंगे। महामारी ने उच्च शिक्षा क्षेत्र को भी बाधित किया है, जो देश के आर्थिक भविष्य का महत्वपूर्ण निर्धारक है। बड़ी संख्या में भारतीय छात्र चीन के बाद  विदेशों में विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं, विशेष रूप से महामारी ग्रस्त अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और चीन में।  ऐसे छात्रों को अब इन देशों में जाने से रोक दिया गया है। यदि स्थिति बनी रहती है तो अंतरराष्ट्रीय उच्च शिक्षा की मांग में गिरावट लाजिम है।

शिक्षा पर प्रभाव से ड्रॉपआउट दरों और सीखने के परिणामों के संदर्भ में नुकसान होने की संभावना है,  बच्चों को घर से सीखने के अवसर कम मिलते हैं। इसके अलावा, स्कूलों को बंद करने से माता-पिता के लिए अलग जिम्मेवारी बढ़ेगी कि वो घर पर रह सकें और बच्चों की देखभाल कर सकें। इससे उत्पादकता भी प्रभावित होती है, मजदूरी में हानि होती है, फलस्वरूप अर्थव्यवस्था पूरी तरह प्रभावित होती है। बड़ी संख्या में स्वास्थ्य देखभाल करने वाली पेशेवर महिलाएं हैं। स्कूल के बंद होने के कारण घर पर उनके बच्चों की उपस्थिति से उनका काम बाधित हो सकता है, जिससे स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित प्रणालियों पर अनायास तनाव पैदा हो सकता है।

ऑनलाइन शिक्षा के लिए गुणवत्ता तंत्र और गुणवत्ता बेंचमार्क स्थापित करना भी महत्वपूर्ण है। कई ई-लर्निंग मंच एक ही विषय पर कई पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। इसलिए, विभिन्न ई-लर्निंग प्लेटफार्मों में पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता भिन्न हो सकती है। तकनीक का असमय फेल होना जैसे इंटरनेट की स्पीड, कनेक्टिविटी की समस्या, लॉक डाउन के समय में कोई साथ उपस्थित होकर सिखाने एवं बताने वाला नहीं होने से भी ऑनलाइन ट्यूटोरियल की सहायता से ही सीखने की मजबूरी, घर में जो साधन है उन्हीं की सहायता से लेक्चर तैयार करना उसे रिकॉर्ड करना, नोट्स बनाना उनकी डिजिटल कॉपी तैयार करना, स्टडी मटेरियल खोजना एवं पाठ्यक्रम के अनुरूप उसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर अपलोड करना, छात्र-छात्राओं से संवाद करना आदि अनेकों नई प्रकार की चुनौतियां शिक्षा समुदाय के समक्ष हैं  प्रौद्योगिकी का डेमोक्रेटाइजेशन अब एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसमें इंटरनेट कनेक्टिविटी, टेलीकॉम इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑनलाइन सिस्टम की क्षमता, लैपटॉप / डेस्कटॉप की उपलब्धता, सॉफ्टवेयर, शैक्षिक उपकरण, ऑनलाइन मूल्यांकन उपकरण आदि शामिल हैं।


इस क्षेत्र की क्षति दुनिया भर में हर क्षेत्र की क्षति के समान है, यह संभव है कि कुछ सावधानीपूर्वक योजना के साथ, हम इस लंबे समय तक बंद के दीर्घकालिक परिणामों को सीमित करने में सक्षम हो सकते हैं। इन सबके वास्तविकता होने के लिए, नीति निर्माताओं, अधिकारियों, छात्रों और विशेष रूप से शिक्षाविदों के दिमाग में विचार प्रक्रिया में भारी बदलाव की आवश्यकता है। संकाय चयन को धीरे-धीरे प्रौद्योगिकी के साथ और प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। ये सब शुरू करने के लिए, ग्रीन ज़ोन में जिलों को अगले कुछ दिनों में और अधिक विश्लेषण करने के बाद स्कूल खोलने की अनुमति दी जानी चाहिए। बिजली की आपूर्ति, शिक्षकों और छात्रों के डिजिटल कौशल, और इंटरनेट कनेक्टिविटी के आधार पर डिजिटल लर्निंग, उच्च और निम्न प्रौद्योगिकी समाधान आदि की संभावना तलाशना, दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रमों में शामिल करना,शिक्षकों के साथ-साथ छात्रों को भी डिजिटलाइजेशन के लिए सहायता प्रदान करना हमारे लिए कुछ अहम मुद्दे है

इसके साथ सख्त सामाजिक दूर करने के उपायों को लागू किया जाना चाहिए, और छात्रों की संख्या को सीमित करने के लिए, कक्षाएं दो चार घंटे की पाली या विषम नियम में चल सकती हैं इसके अतिरिक्त, शिक्षा क्षेत्र के लिए एक वित्तीय प्रोत्साहन विकसित करने की आवश्यकता है जो मुख्य रूप से कम लागत वाले निजी सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को लक्षित करके  बनाया जाये। स्पष्ट रूप से, एक विकासशील देश के रूप में भारत के पास असीमित संसाधन नहीं हैं, शिक्षा सहित कुछ मुख्य क्षेत्रों को अंतिम प्राथमिकता के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता है।

डिजिटल शिक्षा को पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था के पूरक के रूप में अपनाने का मॉडल तो स्वीकार्य रूप में हमारे समक्ष आ चुका है किंतु समग्र शिक्षा व्यवस्था जैसे प्रवेश, पढ़ाई, परीक्षा एवं मूल्यांकन डिजिटल माध्यम से पूरा करना अभी भी एक बड़ी चुनौती है। वास्तव में यही वह तत्व है जो पारंपरिक शिक्षा मॉडल को दूरस्थ शिक्षा मॉडल एवं पत्राचार शिक्षा मॉडल से पृथक करती है।

डिजिटल शिक्षा के संभावित दोषों से बचने की भी आवश्यकता है। पाठ्यक्रमों का प्रयोगात्मक एवं अनुप्रयुक्त ज्ञान का हिस्सा पूर्णतः छोड़ना उचित नहीं है जो डिजिटल किचन के माध्यम से प्रभावी ढंग से कराया जाना संभव नहीं है। सिर्फ कंटेंट डिलीवरी, प्रश्न बैंक एवं नोट्स का प्रेषण करना मात्र ही अध्यापन की इति श्री समझ लेना ठीक नहीं होगा। स्टूडेंट्स फ्रेंडली प्रणाली को अपनाकर परस्पर संप्रेषण का अवसर भी प्रदान करने की चुनौती डिजिटल शिक्षा प्रणाली में व्यवहारिक रूप में दिखाई पड़ती है। इन प्रश्नों के उत्तर खोजना अभी भी शेष है।


इस समय सामान्य परीक्षा प्रणाली एवं नई कक्षा में प्रोन्नत किए जाने के नियमों में शिथिलता प्रदान किए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। ऐसे तमाम अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्त में छुपे हैं जिनका उत्तर मिलना अभी शेष है। विशेष परिस्थितियां सदैव ही अति विशिष्ट निर्णयों की मांग करती रही हैं। व्यापक छात्र हित में आने वाले समय में हम कुछ ऐसे ही निर्णयों के साक्षी बनेंगे।
---------------- ---प्रियंका सौरभ   

कोरोना ने पर्यावरण को दिए अच्छे दिन ..

---------------- ---प्रियंका सौरभ   

जीवाश्म ईंधन उद्योग से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन इस साल रिकॉर्ड 5% की कमी के साथ 2.5 बिलियन  टन घट सकता है,   क्योंकि कोरोनवायरस महामारी रिकॉर्ड पर जीवाश्म ईंधन की मांग में सबसे बड़ी गिरावट का कारण बानी है। कोरोनावायरस के कारण यात्रा, कार्य और उद्योग पर अभूतपूर्व प्रतिबंधों ने हमारे घुटे हुए शहरों में अच्छी गुणवत्ता वाली हवा के साथ अच्छे दिन सुनिश्चित किए हैं। प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन स्तर सभी महाद्वीपों में गिर गए हैं



कोरोनोवायरस महामारी ने आर्थिक गतिविधियों में वैश्विक कमी का कारण बनी  है, हालांकि यह चिंता का प्रमुख कारण है, मानव गतिविधियों के नीचे होने का पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।औद्योगिक और परिवहन उत्सर्जन और अपशिष्ट कम हो गए हैं, और औसत दर्जे का डेटा वायुमंडल, मिट्टी और पानी में प्रदूषकों के समाशोधन का कार्य कर रहा है। यह प्रभाव कार्बन उत्सर्जन के विपरीत भी है, जो एक दशक पहले वैश्विक वित्तीय दुर्घटना के बाद 5 प्रतिशत तक बढ़ गया था

मई का महीना, जो आमतौर पर पत्तियों के अपघटन के कारण शिखर कार्बन उत्सर्जन को रिकॉर्ड करता है, ने दर्ज किया है कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद हवा में प्रदूषकों का न्यूनतम स्तर क्या हो सकता है। चीन और उत्तरी इटली ने भी अपने नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के स्तर में महत्वपूर्ण कमी दर्ज की है। लॉक डाउन के परिणामस्वरूप, मार्च और अप्रैल में दुनिया के प्रमुख शहरों में वायु गुणवत्ता स्तर में नाटकीय रूप से सुधार हुआ। कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) और संबंधित ओज़ोन (O3) के गठन, और पार्टिकुलेट मैटर (PM) में फैक्ट्री और सड़क यातायात उत्सर्जन में कमी के कारण हवा की गुणवत्ता में बड़े पैमाने पर सुधार हुआ। जल निकाय भी साफ हो रहे हैं और यमुना और गंगा नदियों ने देशव्यापी तालाबंदी के लागू होने के बाद से महत्वपूर्ण सुधार दिखा है।

 जब सभी राष्ट्र कोरोनोवायरस के साये में बंद है तो , तो पर्यावरण, परिवहन और उद्योग के नियमों का बेहतर कार्यान्वयन पर्यावरण पर मानव गतिविधि के हानिकारक प्रभावों को कम करने में उपयोगी सिद्ध हुआ है, हालांकि इन विकासों ने वैश्विक उत्पादन, उपभोग और रोजगार के स्तर में भारी आर्थिक और सामाजिक झटके दिए हैं, लेकिन वे वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी के साथ भी जुड़े हैं। इसलिए जब तक कोरोनोवायरस संकट आर्थिक गतिविधियों को कम करता रहेगा, कार्बनउत्सर्जन अपेक्षाकृत कम रहेगा।  यह एक टिकाऊ पर्यावरणीय सुधार है.


विश्व स्तर पर, वायु प्रदूषण के संपर्क में आने वाली मौतें हर साल 7 मिलियन मौतों के साथ महामारी के अनुपात में होती हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए भारत में भी एक जागृत आह्वान होना चाहिए। वायु प्रदूषण को कम करने का लॉक डाउन आदर्श तरीका नहीं है, लेकिन यह साबित करता है कि वायु प्रदूषण मानव निर्मित है। अब हमे ये पता चल गया है कि हम प्रदूषण को कम कर सकते हैं। कोरोनावायरस संकट भारत को एक स्वच्छ ऊर्जा  के भविष्य में निवेश करने के अवसर देता है, अब हमें कार्रवाई करने की आवश्यकता है.

अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक - जिनमें ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन शामिल हैं -  ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने वाले शक्तिशाली जलवायु कैंसर हैं। ये  दुनिया भर में बड़ी आबादी के लिए भोजन, पानी और आर्थिक सुरक्षा को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं, अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों के प्रभाव एक प्रमुख विकास के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करते हैं जो त्वरित और महत्वपूर्ण वैश्विक कार्रवाई  चाहते है, अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक उत्सर्जन को कम करने के उपाय अक्सर सुलभ और लागत प्रभावी होते हैं, और अगर जल्दी से लागू किए गए तो जलवायु के साथ-साथ लाखों लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के लिए तत्काल लाभ ला सकते हैं।


हम उपलब्ध सर्वोत्तम विज्ञान को धन, पहुंच और समझ के द्वारा जीवन बचा सकते हैं। जलवायु परिवर्तन पर विज्ञान के माध्यम से हम जनता के लिए खतरे को भांपने में विफल रहे हैं, जिससे तथ्यों का व्यापक खंडन हुआ है। आवास और जैव विविधता का नुकसान मानव समुदायों में फैलने वाले घातक नए वायरस और सीओवीआईडी -19 जैसी बीमारियों के लिए स्थितियां बनाता है। और अगर हम अपनी भूमि को नष्ट करना जारी रखते हैं, तो हम अपने संसाधनों को भी नष्ट कर देंगे और हमारी कृषि प्रणालियों को गहरा धक्का लगेगा


जलवायु परिवर्तन पर कठोर कार्रवाई भोजन और पानी की कमी, प्राकृतिक आपदाओं और समुद्र के स्तर में वृद्धि को कम कर सकती है, जिससे अनगिनत व्यक्तियों और समुदायों की रक्षा हो सकती है। दुनिया भर में, स्वस्थ लोग अपने समुदायों में अधिक संवेदनशील लोगों की रक्षा के लिए अपनी जीवन शैली बदल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के लिए इसी तरह का समर्पण हमारी ऊर्जा खपत को तुरंत बदल सकता है।

सामान्य रूप से  - जीवाश्म ईंधन को खोदना, जंगलों को काटना और लाभ, सुविधा और खपत के लिए ग्रह के स्वास्थ्य का त्याग करना - विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को बढ़ा रहा है। अब  इस विनाशकारी प्रणाली को छोड़ने और हमारे ग्रह के निवासियों के लिए स्थायी तरीके खोजने का समय आ गया है

वायरस एक लक्षण है - एक संकेत जिसे हमें भविष्य में और भी बड़े लॉकडाउन के लिए अभ्यास करना होगा। यह प्रकृति से हमारे लिए एक जगने की पुकार है - हमारे जीने के तरीके के खिलाफ। कोई भी कोरोनोवायरस के लिए भौगोलिक रूप से अलग नहीं है और जलवायु परिवर्तन के लिए भी यही सच है। यदि हम पर्यवरण के अधिकारों का सम्मान नहीं करते हैं तो कोविड-19 जैसे महामारी बहुत अधिक बार आएंगी।

वैश्विक चुनौतियों के लिए साहसिक परिवर्तनों की आवश्यकता होती है - वे परिवर्तन जो केवल सरकार या कंपनियों द्वारा सक्रिय नही किए जा सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिगत व्यवहार परिवर्तन की भी आवश्यकता होती है। हमें दोनों की जरूरत है। यदि कोरोनावायरस संकट में कुछ भी लाया है, तो यह है कि हम - प्रत्येक, अलग-अलग और एक साथ - सिस्टम को बदल सकते हैं। हमने पिछले कुछ हफ्तों में देखा है कि सरकारें कठिन कार्रवाई कर सकती हैं और हम अपना व्यवहार भी काफी जल्दी बदल सकते हैं।



हमें जीवन जीने के न्यूनतमदृष्टिकोण को अपनाने के साथ निम्न-कार्बन जीवनशैली में बदल करना होगा - हो सकता है कि हमें विकास को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता हो - जो पारिस्थितिक सम्पन्नता के संदर्भ में मापी जा सके न कि बढ़ती आय के स्तर के रूप में। आखिरकार, यह अधिक टिकाऊ और धारणीय जीवन जीने का आखिरी मौका हो सकता है।
पृथ्वी के सभी तत्वों को संरक्षण देने का संकल्प लेनाचाहिए।
अब समय आ गया है , हमें धरती माँ की पुकार सुननी होगी। माँ का दर्जा दिया है तो उसके साथ माँ जैसी भावना से पेश भी आना होगा।
धरती खाली-सी लगे,
नभ ने खोया धीर !
अब तो मानव जाग तू,
पढ़ कुदरत की पीर !
वरना आधुनिक युग के महानतम वैज्ञानिक और ब्रह्मांड के कई रहस्यों को सुलझाने वाले खगोल विशेषज्ञ स्टीफेन हाकिंग की भविष्यवाणी हमें झेलनी होगी। उनका मानना था कि पृथ्वी पर हम मनुष्यों के दिन अब पूरे हो चले हैं। हम यहां दस लाख साल बिता चुके हैं। पृथ्वी की उम्र अब महज़ दो सौ से पांच सौ साल ही बच रही है। इसके बाद या तो कहीं से कोई धूमकेतु आकर इससे टकराएगा या सूरज का ताप इसे निगल जाने वाला है, या कोई महामारी आएगी और धरती खाली हो जाएगी । हाकिंग के अनुसार मनुष्य को अगर एक और दस लाख साल जीवित बचे रहना है तो उसे पृथ्वी को छोड़कर किसी दूसरे ग्रह पर शरण लेनी होगी। यह ग्रह कौन सा होगा, इसकी तलाश अभी बाकी है। इस तलाश की रफ़्तार भी बहुत धीमी है। पृथ्वी का मौसम, तापमान और यहां जीवन की परिस्थितियां जिस तेज रफ़्तार से बदल रही हैं, उन्हें देखते हुए उनकी इस भविष्यवाणी पर भरोसा न करने की कोई वजह नहीं दिखती।
----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
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सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों की महामारी

------------------------------------प्रियंका सौरभ 

विश्वव्यापी कोरोना महामारी के जनजीवन पर तमाम तरह के घातक प्रभाव नजर आए हैं, जिनमें सूचना-तंत्र में ऐसी मनगढ़ंत खबरों का प्रवाह भी शामिल हैं, जो समाज में नफरत-भय को बढ़ावा देता है। इस गंभीर चुनौती पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने भी हाल ही में चिंता जतायी है। उनका मानना था कि कोरोना वायरस की महामारी ने नफरत और अज्ञात भय की सुनामी फैला दी है। हालांकि, उन्होंने अपनी चिंता में किसी का नाम नहीं लिया ताकि किसी देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि खराब न हो, लेकिन देश में यह चिंता किसी से छिपी नहीं है कि सोशल मीडिया का किस हद तक दुरुपयोग होता रहा है। आधी-अधूरी जानकारियों को सांप्रदायिक रंग देकर निहित स्वार्थी तत्वों के मंसूबों को प्रोत्साहित किया गया है। दरअसल, भारतीय जनमानस का संवेदनशील मन ऐसे तत्वों के लिए उर्वरा भूमि उपलब्ध कराता है, जिसके चलते वे तथ्यों की तार्किकता पर ध्यान दिये बिना भावनाओं में बह जाते हैं। यह विचार किये बिना कि समाचार की हकीकत क्या है, वे ऐसी खबरों के सोशल मीडिया में प्रसार में लग जाते हैं। खबरों की ऐसी महामारी जैविक महामारियों से भी ज्यादा खतरनाक है



एक समस्या से संबंधित अधिक मात्रा में सूचना समाधान को और अधिक कठिन बना देती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एक  सही और गलत जानकारी दोनों की अत्यधिक मात्रा दुनिया भर में फैल रही है। सबसे खराब स्थिति यह है कि गलत जानकारी संभावित रूप से वायरस की तुलना में तेजी से फैल रही है, जिससे लोग खराब तरीके से निर्णय ले सकते हैं। कई विवादित वीडियो में एडिटिंग द्वारा छेड़छाड़ की बातें सामने आई हैं। सांप्रदायिक भेदभाव फैलाने की साजिशों का जाल प्रतिदिन बिछता है। अब तो  देश की शीर्ष अदालत भी इस बाबत पर चिंता जताती रही है। पहले लॉकडाउन के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी था कि महामारी से बड़ी समस्या इससे उपजा भय और घबराहट को खत्म करने की है, जिसको लेकर भ्रामक खबरें फैलायी जा रही थीं। कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र में गलत सूचनाएं देने, पॉजिटिव रोगियों के खिलाफ कथित अफवाहें फैलाने व फर्जी खबरों को लेकर कई मामले दर्ज किये गये। डब्लूएचओ ने भी गलत सूचना और भय को सबसे बड़ी चुनौतियों के रूप में घोषित किया है और कहा है कि ये नए कोरोनोवायरस से भी ज्यादा खतरनाक है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन कोरोनावायरस रोग (कोविद-19) के प्रकोप के प्रसार को धीमा करने के प्रयास का नेतृत्व कर रहा है। लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और अन्य आउटलेट्स के माध्यम से गलत सूचना  एक वैश्विक महामारी की तरह तेजी से फैल रही है - जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या है। गलत सूचना, अफवाहें, आदिएक सुनामी की तरह फ़ैल रही है
और इसको घटाने-बढ़ाने में सोशल मीडिया एक वायरस की तरह काम कर रहा है जो तेजी से  इनको और आगे बढ़ाते हैं। भारत जैसे देश में 240 मिलियन से अधिक लोग फेसबुक पर हैं और वो किसी भी चीज के बारे में खबरें और कहानियां साझा करने के लिए इस एकल मैसेजिंग ऐप की ओर रुख करते हैं। अक्सर, इसे समाचार के प्रमुख स्रोत के रूप में उपयोग करते हुए वो  गलत सूचना अपने व्यवहार में उतार लेते है। संकट के समय में, साइबर सुरक्षा महत्वपूर्ण है, लॉकडाउन या आंदोलन प्रतिबंधों के तहत बड़ी संख्या में लोग अब दूरस्थ रूप से काम कर रहे हैं और घर रहकर अध्ययन कर रहे हैं, जिससे ऑनलाइन माध्यम ने उनको साइबर अपराध के लिए अतिसंवेदनशील बना दिया गया है।

कोविद-19 को अंतरराष्ट्रीय चिंता का  सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किए जाने के तुरंत बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन की जोखिम संचार टीम ने एक नया सूचना प्लेटफ़ॉर्म लॉन्च किया जिसका नाम  इनफार्मेशन  नेटवर्क  फॉर  एपिडेमिक्स  (EPI-WIN) है, जिसका उद्देश्य एम्पलीफायरों की एक श्रृंखला का उपयोग करके विशिष्ट लक्ष्य समूह अनुरूप जानकारी साझा करना है। डब्ल्यूएचओ यूनिसेफ और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रहा है, जिनके पास जोखिम संचार में व्यापक अनुभव है, जैसे कि इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसाइटीज। सोशल-मीडिया कंपनियों को अब पहले से कहीं ज्यादा सही और विश्वसनीय जानकारी को क्रमबद्ध, रैंक और प्राथमिकता देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, पिनटेरेस्ट जैसी वेब कंपनियों ने पहले ही अपने होमपेज पर कोविद सम्बंधित हेडर और लिंक पेश किए हैं। अब बहुत जरूरी हो गया है कि कोविद-19 के बारे में तथ्य-जाँच और कठिन मानकों की एक प्रणाली बनाए रखें और उन संदेशों, हैशटैग और ट्रांसमीटरों को बाहर निकाले जो सही जानकारी के रास्ते में बढ़ा बन रहे हैं, आम जनता को साक्ष्य-आधारित जानकारी प्रदान करने में पारंपरिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, इसके बाद सोशल मीडिया का भी ये कर्तव्य बनता है।

सामाजिक और पारंपरिक मीडिया दोनों के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य समुदाय मीडिया को "बेहतर ढंग से समझने में मदद करें क्योंकि मीडिया कभी-कभी सबूत से आगे निकल जाता है"। आज हम पर एक उपयोगकर्ताओं के रूप में, एक संदेश को तुरंत साझा करने, टिप्पणी करने और दूसरों द्वारा साझा किए जाने वाले डोपामाइन रश के लिए सलाह या विकल्प लेने के लिए बेहतर तरीके खोजने की जिम्मेदारी है। एक समाज के रूप में, कोरोनोवायरस के लिए हमारी वैश्विक प्रतिक्रिया की तरह, हम नीचे के फैसलों पर भरोसा नहीं कर सकते।आज हमें ऊपर से निर्णायक नेतृत्व की जरूरत है। जिन डिजिटल राष्ट्रों में हम निवास करते हैं, फेसबुक, फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर, टिकटोक को समझाना चाहिए कि वो कैसा कार्य करते हैं है और उन्हें क्या करने कि अब जरूरत है, इस समय  मार्क जुकरबर्ग (फेसबुक / व्हाट्सएप), सुंदर पिचाई (गूगल/ यूट्यूब), जैक डोरसी (ट्विटर) और झांग यिमिंग (टिक्कॉक) को खुद अपनी कंपनियों के लिए वैसे ही सख्त निर्णय लेने की आवश्यकता है जैसा कि कुछ राजनीतिक नेताओं ने किया है। भविष्य के लिए यह अधिक उपयोगी होगा।

आज का वक्त कदम बढ़ाने और सोशल मीडिया परकठोर मानकों को लागू करने का समय है। भारत के अलावा, संपूर्ण विकासशील देश महामारी के बारे में खबरों के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर निर्भर है।  दरअसल,फर्जी खबरों के स्रोत की पहचान और दोषियों के विरुद्ध कड़े दंड के अभाव में इनके प्रसार को बल मिला है, जिसके लिए नागरिकों को जागरूक करने की भी सख्त जरूरत है। पुलिस प्रशासन के बीच बेहतर तालमेल, सरकार की सख्ती और नागरिकों की जागरूकता से इस समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए। यहां केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका जरूरी है। उसके प्रयासों में सत्य को सामने लाने के लिए नीतियों में पारदर्शिता की भी जरूरत है। यदि ऐसा नहीं होता तो ज्वलनशील खबरों को एक महामारी बनने से नहीं रोका जा सकता। सरकार को संवाद के विकल्प खुले रखने चाहिए ताकि अविश्वास व घृणा फैलाने वालों के मंसूबे धरे रह जायें।

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

महामारी में बढ़ा आत्महत्या का ग्राफ
-----------------प्रियंका सौरभ  
यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने एक अलर्ट जारी करते हुए अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया है कि बढ़ते मानसिक दबावों का सामना कर रहे लोगों की रक्षा करने के लिए और ज़्यादा प्रयास करने होंगे।  हर 40 सेकंड में, दुनिया में कहीं न कहीं कोई न कोई अपनी जान ले लेता है।आत्महत्या के प्रमुख कारणों में बेरोगजारी, भयानक बीमारी का होना, पारिवारिक कलह, दांपत्य जीवन में संघर्ष, गरीबी, मानसिक विकार, परीक्षा में असफलता, प्रेम में असफलता, आर्थिक विवाद, राजनैतिक परिस्थितियां होती हैं। स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकार के कारण उन्माद, अत्यधिक चिंता, मानसिक अस्थिरता, स्नायुविकार, सदैव हीनता की भावना से ग्रसित रहने, निराशा से घिरे रहने, अत्यधिक भावुक, क्रोधी होने अथवा इच्छाओं का दास होने आदि प्रमुख मानसिक विकार हैं, जिनके अधीन होकर व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। कोई व्यसन शराब, जुआ, यौन लिप्सा अथवा अपराधी कार्यों, जैसे व्यक्तिगत दोषों की अधिकता के कारण सामाजिक जीवन से अपना तालमेल करने में असमर्थ रहने पर भी आत्महत्या कर लेता है।  


लेकिन आज दुनिया भर में कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जहां लोग कोविद -19 के संक्रमण, सामाजिक कलंक, अलगाव, अवसाद, चिंता, भावनात्मक असंतुलन, आर्थिक शटडाउन, अभाव और अनुचित ज्ञान, वित्तीय और भविष्य की असुरक्षा के डर से अपनी जान ले चुके हैं। हाल ही में हुई आत्महत्या की खबरों से हम दुनिया भर में होने वाली आत्महत्या की घटनाओं पर इस वायरस के प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य और टिकाऊ विकास पर ‘लान्सेट कमीशन’ की उस चेतावनी का भी उल्लेख है जिसके मुताबिक पहले के हालात में ख़ुद को ठीक ढंग से संभाल लेने वाले बहुत से लोगों के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं क्योंकि महामारी के कारण अनेक प्रकार के दबाव पैदा हुए हैं. लोगों के सामने अनेक अनिश्चितताएँ हैं और इन हालात में ख़ुद को संभालने के लिए लोगों में एल्कॉहॉल (शराब), नशीली दवाओं, तम्बाकू और ऑनलाइन गेम्स की लत बढ़ रही है.महामारी के दौरान बढ़ती आत्महत्याओं के कारण पहले से कुछ अलग भी है, जिसमें आज पहली वजह है सामाजिक अलगाव या दूरी जो आज कोरोना से बचने के लिए अत्यंत जरूरी है मगर यह अलगाव  नागरिकों में बहुत अधिक चिंता पैदा करता है। 

आज हर उम्र के लोग अवसाद और अकेलेपन से घिर चुके है। जिसके कारण खाली बैठे-बैठे उनमें आत्मघाती विचार उमड़ रहें हैं। अलगाव  सामान्य सामाजिक जीवन को बाधित करता है और अनिश्चित काल के लिए मनोवैज्ञानिक भय और फंसा हुआ महसूस करवाता है।  घर से काम करने की सलाह ने हमारे सामाजिक जीवन को प्रतिबंधित कर दिया है। दुनिया भर में आर्थिक मंदी की तालाबंदी ने असुरक्षा को जन्म दिया है जिसके कारण उभरते आर्थिक संकट से दहशत पैदा हो गई  है, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, गरीबी और बेघरता संभवत: आत्महत्या के खतरे को बढ़ाएगी या ऐसे रोगियों में आत्महत्या की कोशिशों में वृद्धि को बढ़ाएगी। तनाव, चिंता और चिकित्सा स्वास्थ्य पेशेवरों में दबाव आज अपने चरम पर हैं। ब्रिटिश अस्पतालों में 50% चिकित्सा कर्मचारी बीमार हैं। लंदन में, एक युवा नर्स ने कोविद -19 रोगियों का इलाज करते हुए अपनी जान ले ली, सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव ने भी कोविद -19 आत्महत्या की सूची में कुछ मामलों को भी जोड़ा है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में पहला कोविद-19 आत्महत्या का मामला, जहां एक 36 वर्षीय व्यक्ति ने पड़ोसियों द्वारा सामाजिक परहेज के कारण आत्महत्या कर ली और अपने समुदाय में  वायरस को रोकने के लिए आत्महत्या  कर ली। 

दरअसल, आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति विशुद्ध रूप से एक समाजशास्त्रीय परिघटना है। आज व्यक्ति अपने जीवन की तल्ख सचाइयों से मुंह चुरा रहा है और अपने को हताशा और असंतोष से भर रहा है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। यह हैरान करने वाली बात है कि भारत जैसे धार्मिक और आध्यात्मिक स्र्झान वाले देश में कुल आबादी के लगभग एक तिहाई लोग गंभीर रूप से हताशा की स्थिति में जी रहे हैं।  भावनात्मक संकट से लोगों को निकालने के लिए  स्थानीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, सामाजिक और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म से कोविद -19 संबंधित समाचारों की सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता है और ये सब डब्ल्यूएचओ से प्रामाणिक होने चाहिए। आज हमें भौतिक दूरी के बावजूद एक दूसरे से जुड़ाव और एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है। आत्मघाती विचारों, आतंक और तनाव विकार, कम आत्मसम्मान और कम आत्म-मूल्य वाले व्यक्ति, इस तरह के वायरल महामारी में आत्महत्या जैसी भयावह सोच के लिए आसानी से अतिसंवेदनशील होते हैं। हमें आत्महत्या के कारणों को  बहुत सावधानी से देखने की जरूरत है, जहां लोग अक्सर कहते हैं कि 'मैं जीवन से थक गया हूं', 'कोई मुझे प्यार नहीं करता', 'मुझे अकेला छोड़ दो' और इसी तरह।

व्यक्ति में इस तरह के व्यवहार पर संदेह करने पर, हम आत्महत्या की प्रवृत्ति से जूझ रहे लोगों को अपने पास ला सकते हैं ताकि उन्हें प्यार और सुरक्षा महसूस हो सके। सामाजिक पुनर्वास के लिए सामाजिक-मनोविज्ञान की जरूरत है, भावनात्मक, मानसिक और व्यवहार संबंधी सहायता के लिए 24 × 7 संकट प्रतिक्रिया सेवा के साथ टेली-काउंसलिंग को लागू करने की आवश्यकता है। व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक सहायता और देखभाल दी जानी चाहिए। राज्य इस उद्देश्य के लिए गैर-सरकारी संगठनों के साथ-साथ धार्मिक मिशनरियों से सहायता ले सकता है। मौजूदा राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम को मजबूत करना, साथ ही प्रशिक्षण संसाधनों पर ध्यान केंद्रित करना और धनराशि को व्यवस्थित करना अवसाद और आत्महत्या से लड़ने के लिए कुछ अन्य तरीके हो सकते हैं। बेरोजगार लोगों की मदद करने जैसे दीर्घकालिक समाधान सार्थक कार्य खोजने या  प्रशिक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य संकट के जोखिम में लोगों की पहचान करने के लिए समुदायों में भेजा जाना अति जरूरी है।

आत्महत्या रोकने योग्य है। जो लोग आत्महत्या पर विचार कर रहे हैं, वे अक्सर अपने संकट के बारे में चेतावनी देते हैं। हम अपने परिवारों के साथ समय बिता सकते हैं, सोशल मीडिया पर दोस्तों से जुड़ सकते हैं, और जब तक हम सभी इस लड़ाई को नहीं जीत लेते, तब तक वे माइंडफुलनेस गतिविधियों में संलग्न रहेंगे।आत्महत्या से मरने वालों की संख्या के ये आंकड़े बेशक डरावने हैं, लेकिन इस प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आत्महत्या के पीछे कारणों को सही से समझ कर उस दिशा में काम किया जाए। जिंदगी बहुत प्यारी है, किसी भी हालात में इसे मौत को इस पर जीत मत हासिल करने दीजिए। अगर आपके आस-पास कोई जिंदगी से निराश होता नजर आ रहा है तो थोड़ा सा समय निकालें और उसके जीवन में फिर से आशा लाने का प्रयास करें। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने  नॉवल कोरोनावायरस (कोविड-19) को ‘अंतरराष्ट्रीय चिंता वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य एमरजेंसी’ घोषित किया है और इसे विश्वव्यापी महामारी के रूप में परिभाषित किया है. लगातार फैलती बीमारी से दुनिया के माथे पर तनाव की लकीरें गहरी हुई हैं जिसका लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है. यूएन स्वास्थ्य एजेंसी ने मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा की अहमियत को समझते हुए दिशा-निर्देश तैयार किए हैं।

--- प्रियंका सौरभ   
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, दिल्ली यूनिवर्सिटी, 
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

 क्या बहरा हुआ खुदाय ||

----- --प्रियंका सौरभ   

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुक्रवार को लाउडस्पीकर से अजान देने को लेकर बड़ा फैसला दिया है. हाईकोर्ट ने कहा कि अजान इस्लाम का अहम हिस्सा है, लेकिन लाउडस्पीकर से अजान इस्लाम का हिस्सा नहीं है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि लाउडस्पीकर से अजान पर प्रतिबंध वैध है. किसी भी मस्जिद से लाउडस्पीकर से अजान दूसरे लोगों के अधिकारों में हस्तक्षेप है. अजान के समय लाउडस्पीकर के प्रयोग से इलाहाबाद हाईकोर्ट सहमत नहीं है.


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मस्जिद से अजान पर बड़ा फैसला देते हुए कहा है कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग नहीं है, हालांकि कोर्ट ने कहा कि अजान इस्लाम का धार्मिक भाग है. मानव आवाज में मस्जिदों से अजान दी जा सकती है. कोर्ट ने कहा है कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है. किसी को भी अपने मूल अधिकारों के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है.

इस से पूर्व याची ने लाउडस्पीकर से मस्जिद से रमजान माह में अजान की अनुमति ना देने को धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने की मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर हस्तक्षेप करने की मांग की थी. मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर ने इसे जनहित याचिका के रूप में स्वीकार कर लिया और सरकार से पक्ष रखने को कहा. दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. शुक्रवार को फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग नहीं है. स्पीकर से अजान पर रोक सही है. कोर्ट ने कहा कि जब स्पीकर नहीं था, तो भी अजान दी जाती थी, इसलिए यह नहीं कह सकते कि स्पीकर से अजान रोकना अनुच्छेद 25 के धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन है.

अब प्रश्न ये उठता है कि  क्या अगर मस्जिदों से लाउडस्पीकरों पर अजान न दी जाए तो इस्लाम खतरे में आ जाएगा?  या फिर मंदिरों में आरती लाउड स्पीकर से नहीं हुई तो हिन्दू धर्म मिट जायेगा और देवी-देवता नाराज़ होकर धरती छोड़कर भाग जायेंगे, हज़ारों साल पुराने इस्लाम और हिन्दू धर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि लाउडस्पीकर से अजान न भी दी जाए या आरती मौन रहकर की जाये। इस्लाम में मस्जिदें भी बाद में ही बनी और उन दिनों लाउडस्पीकर जैसा उपकरण था भी नहीं तो अजान तो एक मोइज्जिन ही तो देता था । आज भी वही देता है । मंदिरों में उस ज़माने में  पुजारी आराम से बिना किसी यन्त्र के मंत्र पढ़ते थे और पूजा-पाठ करते थे. लेकिन, अब लाउडस्पीकर लगा कर क्यों बेवजह का धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश में लगे है.

अजान बेशक इस्लाम का इसके प्रारंभिक दिनों से ही अभिन्न अंग हैं। इस्लाम, अजान और लाउड स्पीकर के संबंधों पर विगत दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक मील का पत्थर फैसला सुनाया है । अपने फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग कत्तई नहीं है। हां, यह जरूर है कि अजान देना इस्लाम का धार्मिक परम्परा  जरूर है। इसलिए मस्जिदों से मोइज्जिन बिना लाउडस्पीकर अजान दे सकते हैं। निश्चित रूप से इस फैसले का तो चौतरफा स्वागत होना चाहिए, साथ ही अन्य धार्मिक स्थलों पर भी यही कानून लागू होने चाहिए.

हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों पर भी कसकर हल्ला बोला बोलना अब जरूरी हो गया है. हिन्दू धर्म के लोग भी आरती के नाम पर लाउड स्पीकर का प्रयोग करते है, मंदिरों की संख्या भी मस्जिदों की तुलना में बहुत ज्यादा है, हिन्दू धर्म  में जो  धार्मिक उत्सव होते हैं," उनमे लोग दादागीरी करते हैं, नाचते हैं.  ऐसा करने से पुलिस की तकलीफ बढ़ जाती है।" लोग धर्म के नाम पर शराब पीते हैं, फिल्मी गाने बजाते हैं।" अब कोर्ट के फैसले का कौन से धार्मिक समुदाय विरोध करेंगे? क्या इस्लाम को छोड़कर और कोई कुछ भी करे ये उनकी मर्जी है। पर कोर्ट ने गलत तो कुछ भी नहीं कहा। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार व्यक्ति के जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है। किसी को भी अपने मूल अधिकारों के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार तो बिलकुल नहीं है.

 दरअसल वैश्विक महामारी कोरोना से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन घोषित किया गया है। इसके चलते उत्तर प्रदेश में भी सभी प्रकार के आयोजनों व एक स्थान पर भीड़ एकत्र होने पर रोक लगी। लाउडस्पीकर से अजान करने पर रोक लगाने का निर्देश दिया था। इसके खिलाफ गाजीपुर से  बाहुबली सांसद कोर्ट में चले गए। उन्होंने तर्क दिया कि रमजान के महीने में लाउडस्पीकर से मस्जिद से अजान की अनुमति न देने को धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन है।

बहरहाल, इस बार कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन के चलते रमजाने के महीनें में भी मस्जिदों से अजान नहीं सुनी गई। ऐसा नहीं कि अजान न हुईं होगीं। लेकिन लाउडस्पीकर का भोंपू अजान के साथ नहीं जोड़ा गया। समझ में नहीं आता कि मस्जिदों- मंदिरों- गुरुद्वारों को लाउड स्पीकर की जरूरत क्यों पड़ती है? नमाज और पूजा का काम शांति से भी तो हो सकता है।

दरअसल कुछ विसंगतियों के चलते ही ऐसा होता है।  यह परिवर्तन किसी धर्म विशेष  की वजह से नहीं कट्टरपंथियों की वजह से हुआ है। कट्टरपंथ किसी भी धर्म के लिये अच्छा नहीं होता। आज इसी कट्टरपंथ ने कई उदार और उद्दात्त हिन्दुत्व को भी संकीर्ण बना दिया है। किसी भी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक प्रकृति का नियम है । किसी भी धार्मिक स्थान से तेज अवाज में शोर होना गलत है। धर्म कभी यह नहीं कहता है कि दूसरों को किसी भी तरह से तकलीफ दी जाए।

अपने धर्म को मानिये, प्रचार कीजिये। परंतु, ये भी तो आपकी जिम्मेदारी है कि उससे किसी को तकलीफ न हो। यही तर्क इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में दिया है। जब किसी भी धर्म का का उदय हुआ तो उस समय लाउडस्पीकर नहीं थे। सतयुग, त्रेता, द्वापर युग में भी लाउडस्पीकर नहीं थे। जो लोग अपने अनुसार धर्म की परिभाषा गढ़ रहे है, वह बहुत ही गलत और विनाशकारी है। सदियों पहले कबीर ने ये बात स्पष्ट तौर पर कही थी जैसी आज कोर्ट ने कही है -कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चिनाय| ताचढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ||”  वो कितने बड़े शैतान होंगे जिन्होंने कबीर जैसे महान् विज्ञानवादी और मानवतावादी सन्त को सीधा भक्ति से जोड़ दिया और लाउडस्पीकर में कैद करके रख दिया।

कोरोना काल में हमें अब धार्मिक अंधविश्वासों को किनारे करने की जरूरत है और विज्ञान को समझने की जरूरत है, धर्म हमें अच्छा रास्ता बताता है, उसे मानिये और मानने के लिए हमें तरह-तरह के ढोंग रचने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी कोरोना के खतरे की घंटी हमें यही बता रही है कि हमें अब मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों कि बजाय अच्छे अस्पतालों और भगवान् कि शक्ल में दयालु और कर्मठ डॉक्टरों की ज्यादा जरूरत है, हमें अब धार्मिक उन्मादी की बजाय  विज्ञानवादी और मानवतावादी होने की सख्त जरूरत है।  

-- --प्रियंका सौरभ    

गिलगिट-बाल्टिस्तान में लहराएगा तिरंगा

----------------------प्रियंका सौरभ 
पाक सरकार कोरोना महामारी को रोकने व अपने नागरिकों को बचाने के लिए बिल्कुल संजीदा दिखाई नहीं दे रही। इसके बजाय वह सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही के फैसले के तहत गिलगित-बाल्टिस्तान में आम चुनाव कराकर कठपुतली अंतरिम सरकार कायम करने में जुट गई है,  भारत ने इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया है, पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस क्षेत्र में अवैध रूप से चुनाव कराकर गिलगित-बाल्टिस्तान पर अपना कब्जा मजबूत करने के लिए इस्लामाबाद के कदम को बेहद निंदनीय कहा है, प्रायोजित चुनावों का बहिष्कार करने का आग्रह किया है। ।



मुद्दा क्या है?

 यह उत्तर में चीन, पश्चिम में अफगानिस्तान, उत्तर पश्चिम में ताजिकिस्तान और दक्षिण पूर्व में कश्मीर तक फैला हुआ है। यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के साथ एक भौगोलिक सीमा साझा करता है, और भारत इसे अविभाजित जम्मू और कश्मीर का हिस्सा मानता है, जबकि पाकिस्तान इसे पीओके से अलग देखता है। इसमें एक क्षेत्रीय विधानसभा और एक निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान ने 2009 से "प्रांतीय स्वायत्त क्षेत्र" के रूप में काम किया है। इसके अलावा, भारत ने यह बता दिया है कि जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के पूरे केंद्र शासित प्रदेश, जिसमें गिलगित और बाल्टिस्तान भी शामिल हैं, अपने पूर्ण कानूनी और अपरिवर्तनीय परिग्रहण के आधार पर भारत का अभिन्न अंग हैं।

भारत का रुख:-

जम्मू और कश्मीर का पूरा राज्य, जिसमें तथाकथित 'गिलगित-बाल्टिस्तान' भी शामिल है, भारत का एक अभिन्न अंग बना हुआ है। पाकिस्तान सरकार या न्यायपालिका के पास अवैध रूप से और जबरन उसके कब्जे वाले क्षेत्रों पर कोई लोकस स्टैंडी नहीं है। पाकिस्तान द्वारा इन कब्जे वाले क्षेत्रों की स्थिति को बदलने की कोई भी कार्रवाई का कोई कानूनी आधार नहीं है। पाकिस्तान ने 2017 में रणनीतिक गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र को अपना पांचवां प्रांत घोषित किया। गिलगित- बाल्टिस्तान जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है और इस तरह के किसी भी कदम से पाकिस्तान के कश्मीर मामले को गंभीरता से नुकसान होगा।
 
 13 अगस्त, 1948 और 5 जनवरी, 1949 के दो संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों ने स्पष्ट रूप से जीबी और कश्मीर मुद्दे के बीच एक कड़ी स्थापित की। इस क्षेत्र को अपना पांचवां प्रांत बनाने से इस प्रकार कराची समझौते का उल्लंघन होगा  संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से कश्मीर मुद्दे पर उसकी स्थिति को नुकसान होगा। इस तरह का कोई भी कदम 1963 के पाक-चीन सीमा समझौते का उल्लंघन होगा जो पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर विवाद के निपटारे के बाद चीन के साथ बातचीत को फिर से खोलने के लिए संप्रभु अधिकार का आह्वान करता है और 1972 के शिमला समझौते का उल्लेख है कि "न तो" पक्ष एकतरफा स्थिति को बदल देगा ”।

पाकिस्तानी करतूतें-:

राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तान पर गिलगित बाल्टिस्तान की जनसांख्यिकी को बदलने और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) को अपनी प्रतिबद्धताओं के विपरीत करने का आरोप लगाया है। इस्लामाबाद ने धीरे-धीरे अपने संविधान को कमजोर कर दिया है ताकि बाहरी लोगों को अवैध रूप से कब्जे वाले क्षेत्रों की भूमि और संसाधनों को हड़पने की सुविधा मिल सके। इस्लामाबाद ने 1984 में गिलगित बाल्टिस्तान में राज्य विषय नियम को समाप्त कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र में जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुए। पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों के लोग वहां जमीन खरीदने के लिए स्वतंत्र हैं।  इसने पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू और कश्मीर की जमीन पर अतिक्रमण किया है और चीन को अवैध तरीके से यहाँ आगे बढ़ाया है।

वर्तमान में, गिलगित-बाल्टिस्तान न तो एक प्रांत है और न ही एक राज्य है। इसे अर्ध-प्रांतीय स्थिति है। इस्लामाबाद के पास क्षेत्र के भू-रणनीतिक लाभों में संसाधनों और नकदी का फायदा उठाने के लिए संसाधनों से स्थानीय लोगों को लूटता है। यह उन्हें नौकरियों और सेवाओं से वंचित करता है। इसने स्थानीय जल संसाधनों पर कभी रॉयल्टी का भुगतान नहीं किया है।  ये सभी गतिविधियाँ अवैध हैं और स्वीकार्य नहीं हैं। जम्मू और कश्मीर की पूर्ववर्ती रियासत पाकिस्तान के विस्तारवादियों के डिजाइन के कारण विभाजित थी।

 तब से लोग पाकिस्तान के अलोकतांत्रिक शासन के तहत एक अंतहीन विडंबना झेल रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा और समाज नष्ट हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों को लंबे समय से लूटा गया है। शिक्षित युवाओं के लिए कोई रोजगार नहीं है। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तानी सेना ने गिलगित बाल्टिस्तान और पीओके के लोगों को अविकसित और वंचित रखने के लिए व्यवस्थित रूप से ऑपरेशन किए हैं। अधिकांश शिक्षित लोगों को भी पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के पक्ष में प्रचार करने के लिए इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस द्वारा भर्ती किया गया है और यह एक बहुत ही खतरनाक घटना है।

द चाइना फैक्टर:-

सवाल यह है कि पाकिस्तान वहां चुनाव क्यों करा रहा है। दरअसल उस पर अपने घनिष्ठ मित्र चीन का दबाव है। गिलगित-बाल्टिस्तान का 634 किलोमीटर का हिस्सा चीन ने घेर रखा है और पाक-चीन आर्थिक गलियारा यहीं से होकर गुजरता है। चूंकि भारत इस हिस्से पर अपना दावा जताता है, इसलिए चीन किसी भी तरह के विवाद से बचना चाहता है। पाकिस्तान वहां आम चुनाव कराकर अपने हितों की पूर्ति के लिए इस क्षेत्र को वैधता प्रदान कराना चाहता है व चीन को हर कीमत पर खुश रखना चाहता है। वैसे भी यह इलाका पाकिस्तान और चीन के लिए सामरिक दृष्टि से काफी महत्वूपर्ण है। पाकिस्तान पर दबाव है कि वह गिलगित बाल्टिस्तान को उसका प्रांत घोषित करे ताकि चीन अपना काम संभाल सके।

 
भारत की स्थिति और  चिंताएँ:-

भारत के लिए इस क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने के भारतीय कदम का न केवल पाकिस्तान द्वारा विरोध किया जाएगा, बल्कि चीन भी, जो इस क्षेत्र में खुदाई कर रहा है, ताकि अपने सहयोगी पाकिस्तान की जिहादी खराब भूमि के बीच एक कुशन का निर्माण किया जा सके। इसलिए, चीनी कई पनबिजली और सड़क निर्माण परियोजनाओं में सक्रिय रहे हैं, जैसे कि नीलम घाटी, दियार भाषा बांध, काराकोरम राजमार्ग का विस्तार, सोस्ट ड्राई पोर्ट, बुंजी बांध आदि। चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश की घोषणा की जिसे अब चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा कहा जाता है, भारत ने फिर विरोध किया क्योंकि गलियारा गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरता था। गलियारे में तेल पाइपलाइनों, सड़कों और बलूचिस्तान में ग्वादर को कसघर से जोड़ने वाली एक रेलवे शामिल होगी।


आगे का रास्ता:

हमें इस क्षेत्र में अपने अधिकारों का दावा करने और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मंचों को लाने की आवश्यकता है। उस क्षेत्र में शोषित लोगों का समर्थन करने के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह का समर्थन प्राप्त करना महत्वपूर्ण है।  हमें उन्हें जम्मू-कश्मीर विधानसभा में गिलगित बाल्टिस्तान के लिए आरक्षित सीटें देने की आवश्यकता है। भारत की जनता भी मोदी सरकार से उम्मीद कर रही है कि वह पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाने के लिए ठोस कदम उठाएगी।

संसद में भी इस बारे में प्रस्ताव पारित हो चुके हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाते समय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान को भारत का हिस्सा बताते हुए वहां तिरंगा फहराने का संकल्प लिया था। भारत को बदलते हालात का फायदा उठाना होगा और पाक अधिकृत कश्मीर व गिलगित-बाल्टिस्तान के सारे क्षेत्र को पाकिस्तान के चंगुल से निकालकर जम्मू-कश्मीर में शामिल कर अखंड भारत का सपना पूरा करना होगा।

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगें हालात !!
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बने विजेता वो सदा, ऐसा मुझे यकीन !
आँखों में आकाश हो, पांवों तले जमीन !!

तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात !
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगें हालात !!

बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल !
बोयें हम नवभोर पर, सुंदर सुरभित फूल !!

तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार !
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार !!

नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास !
शब्द कलम से जो लिखें, बन जाये इतिहास !!

आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान !
जवां हौसलों में सदा होती जिनके जान !!



उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलों दुःख की बात !
आशाओं के रंग से, भर लो फिर जज्बात !!

छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार !
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार !!

हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार !
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार !!

हँसकर साथी गाइये, जीवन का ये गीत !
दुःख सरगम सा जब लगे, मानो अपनी जीत !!

सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत !
जी लें, जी भर जिंदगी, हार मिले या जीत !!

✍ प्रियंका सौरभ   

समस्याओं से दूर हो रियल्टी शो बनी पत्रकारिता 

------------------------------ --प्रियंका सौरभ   


पूरी दुनिया ने पत्रकारिता को अपना एक अभिन्न और खास अंग मना है और साथ ही लोकतंत्र में इसको चौथा स्तंभ के रूप में माना गया है। वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 193 वर्ष हो गए हैं।



30 मई 2019 यानि आज पूरे देश में पत्रकारों का सबसे खास दिन पत्रकारिता दिवस 2019 ( मनाया जा रहा है। सन 1826 में सबसे पहले हिंदी भाषा में समाचार पत्र उदंत मार्तंड जारी हुआ था। जिससे भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। इस दिन को ही हर साल पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है,इस अवधि में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है।

देश की मीडिया अभी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही है। अपवादों को छोड़ दें तो हमारी मीडिया की प्रतिबद्धता अब देश के आमजन के प्रति नहीं, राजनीतिक सत्ता और उससे जुड़े लोगों के प्रति है। कुछ मामलों में यह प्रतिबद्धता बेशर्मी की तमाम हदें पार करने लगी है। वह इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव इतना कभी नहीं रहा था जितना आज है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं।

राष्ट्र के पास जब कोई मिशन, कोई आदर्श, कोई गंतव्य नहीं तो मीडिया के पास भी क्या होगा ? 'जो बिकता है, वही दिखता है' के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है जिसपर किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े-छोटे व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। उन्हें अपने न्यूज़ चैनल या अखबार चलाने और उससे मुनाफा कमाने के लिए विज्ञापनों से मिलने वाली भारी भरकम रकम चाहिए और यह रकम उन्हें सत्ता और उससे निकटता से जुड़े व्यावसायिक घराने ही उपलब्ध करा सकते हैं।

जो मुट्ठी भर लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना और सामाजिक सरोकारों का वाहक बनाने की कोशिशों में लगे हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का गहरा संकट है। कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आती। दो ही तरह के जर्नलिज्म का दौर चल रहा है। एक दौर सुपारी जर्नलिज्म का है। जहां मुद्दे को ऐसे उछाला जाता है जैसे गांव की कोई झगड़ालू औरत छोटी सी बात को लेकर महीनों सड़क पर निकल गाली गलौज करती रहती हो। नतीजा भारत की पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता को खो चुका है। ठीक उसी तरह जैसे भेड़िया आया , भेड़िया आया की कहानी में।

भारत के संदर्भ में पत्रकारिता कोई एक-आध दिन की बात नहीं है, बल्कि इसका एक दीर्घकालिक इतिहास रहा है। प्रेस के अविष्कार को पुर्नजागरण एवं नवजागरण के लिए एक सशक्त हथियार के रूप में प्रयुक्त किया गया था। भारत में प्रेस ने आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर गुलामी के दिन दूर करने का भरसक प्रयत्न किया।

कई पत्रकार, लेखक, कवि एवं रचनाधर्मियों ने कलम और कागज के माध्यम से आजादी की आग को घी-तेल देने का काम किया। प्रेस की आजादी को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में आज आमजन की राय क्या है? क्या भारत में पत्रकारिता एक नया मोड़ ले रही है? क्या सरकार प्रेस की आजादी पर पहरा लगाने का प्रयास कर रही है? क्या बेखौफ होकर सच की आवाज को उठाना लोकतंत्र में 'आ बैल मुझे मार' अर्थात् खुद की मौत को सामने से आमंत्रित करना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर किसी के जेहन में उठ रहे हैं। 

मीडिया में आम आदमी की समस्याओं से इत्तर होकर अनुपयोगी रियल्टी शो संचालित होने लग गए हैं। पत्रकारिता की जनहितकारी भावनाओं को आहत किया जा रहा है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब कदापि स्वच्छंदता नही है। खबरों के माध्यम से कुछ भी परोस कर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा की ओर ले जाना कतई स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। मीडिया की अति-सक्रियता लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। निष्पक्ष पत्रकार पार्टी के एजेंट बन रहे हैं। एक बड़ा पत्रकार तबका सत्ता की गोद में खेल रहा है। आदर्श और ध्येयवादी पत्रकारिता धूमिल होती जा रही है व पीत पत्रकार का पीला रंग तथाकथित पत्रकारों पर चढ़ने लग गया है।

हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से ‍छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है। एक बात और...हिंदी पत्रकारिता ने जिस 'शीर्ष' को स्पर्श किया था, वह बात अब कहीं नजर नहीं आती। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है।

इसमें कोई दो मत नहीं कि हिंदी पत्रकारिता में कुछ संपादक और पत्रकार ऊँचे दर्जे के रहे हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि अंग्रेजी के नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी। आज वे हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने जिस सम्मान को स्पर्श किया, वह अब कहीं देखने को नहीं मिलता। दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती। हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर ‍निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है। यहां महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को उद्धृत करना भी समीचीन होगा...
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी।

वर्तमान दौर में खेमों में बंटी पत्रकारिता समाज को गलत दिशा में ले जा रहे है, कुछ लोग पत्रकारिता/साहित्य में है क्यूंकि उनको इसकी अपनी स्वार्थ सीधी के लिए जरूरत है जबकि कुछ लोग इसलिए है कि पत्रकारिता और साहित्य को उनकी जरूरत है, तभी आज समाज बचा हुआ है, ऐसे बहुत से है जो सच और संतुलित लिखने की बजाय सालों से घिस रहे है बस.....उनको अपनी प्राथमिक इच्छा के साथ तो न्याय करना चाहिए बाकी देखा जायेगा, आने वाली पत्रकार पीढ़ी को संतुलित फैसला करके आगे बढ़ना होगा तभी हिंदुस्तान बचेगा

पत्रकारिता जनता और नीति निर्माताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता है. इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका एक पत्रकार निभाता है. ये पत्रकार कुलीन वर्ग द्वारा बोले गये  संदेश को सुनते हैं और उन्हें रिकॉर्ड करते हैं. तत्पश्चात इस सूचनाओं को संसाधित किया जाता है और जनता के हितार्थ सूचना के लिए प्रकाशित किया जाता है.पत्रकारों को सूचना के सन्दर्भ में देश की अखंडता,  सुचना की तटस्थता, वैधता और सार्वजनिक जबाबदेही के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. साथ ही पत्रकारिता के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए ताकि जनता में स्वच्छ सुचना का न केवल प्रसारण हो सके वल्कि उससे जनता लाभान्वित हो सके.

  ---प्रियंका सौरभ   
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
महामारी में किताबों से दोस्ती 
-------------------प्रियंका सौरभ 

आदमी जब ठहरता है तो इस विश्रांति में जो जीवन है उसकी झलक देखने को मिलती है। इन मुश्किलों में भी जीवन का आस्वाद और कहीं न कहीं मानव जाति पर छाए इस घनघोर संकट के लिए कुछ पलों के लिए गहरी उदासी तथा चिंता में डूब जाता  है। इस ठहराव से सृजन के जो क्षण उपलब्ध कराए, वो पुस्तकें ही सकती है और पुस्तकों में जी भर डूबने का जो अवसर मिलता है, वह स्मृतियों में हमेशा दर्ज रहता है।



किताबें हमारे जीवन को सजाती-संवारती हैं। कहते हैं कि "जब आप एक किताब खोलते हैं, आप एक नई दुनिया खोलते हैं ”। मुझे विश्वास है कि हर कोई इस कथन से सहमत होगा चूंकि किताबें हमेशा से सभ्य दुनिया काअविभाज्य हिस्सा रही हैं। ज्यादातर लोगों के लिए, किताबें उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं। किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं जो कभी आपसे दूर नहीं चलती, आपके पास रहती है. हर वक़्त आपको कुछ समझाने-बताने और नया सिखलाने के लिए।

पुस्तकें ज्ञान से भरी होती हैं, जीवन में एक अंतर्दृष्टि देती हैं, जरूरत के समय मददगार सलाह के अलावा,  प्यार करना सिखाती हैं और डर को खत्म करना सिखाती हैं, आपने कभी सोचा कि अगर बुद्धिजीवियों ने कभी अपने समय का दस्तावेज नहीं बनाया तो क्या हुआ होगा?  एक पुस्तक ज्ञान का संचार करती है और  एक पीढ़ी से दूसरे को ज्ञान प्रसारित भी करती है।  "जितना अधिक आप पढ़ते हैं, उतना ही अधिक, अच्छी तरह से आप पढ़ रहे हैं ”। सरल शब्दों में इसका अर्थ  है यह है कि जितना अधिक आप पढ़ते हैं आप उतने अधिक नई वास्तविकताओं से परिचित होते हैं । आपका नजरिया बदल जाता है और आपके विचार और कल्पना चौड़ी हो जाती है। मेरा मानना है कि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व और व्यवहार सभी पुस्तकों का प्रतिबिंब होता है

जैसा कि पूर्व में कहा गया है - "सीखने से रचनात्मकता मिलती है, और रचनात्मकता सोचने की ओर ले जाती है, सोच ज्ञान प्रदान करती है, ज्ञान आपको महान बनाता है। ” किताब  एक बहुत ही सीधे काम की तरह होता है, क्या यह नहीं है?  यदि आप पूरी तरह से मनोरंजन या आराम के लिए पढ़ रहे हैं, तो यह निश्चित रूप से इतना आसान हो सकता है।  आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है, पुस्तक को खोलना और शब्दों को पढ़ना जितना सरल है, उतना और कुछ भी नहीं है। मेरा मानना है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है।

यह एक भयावह समय है। हम कोरोना  के बीच में हैं, दुनिया भर में महामारी ने शहरों ,गाँवों, पूरे देशों को बंद कर दिया है। हम में से कुछ ऐसे क्षेत्रों में हैं जो पहले से ही है कोरोना से प्रभावित है।  क्या हो सकता है?  हम सभी सुर्खियों में देख रहे हैं और सोच रहे हैं, "आगे क्या होने जा रहा है?" हम सभी को आश्वासन, सलाह  की जरूरत है, इस मुश्किल समय के दौरान सहानुभूतिपूर्ण सहायक रूप में किसे चुनते हैं। कोरोनावायरस केवल एक  संक्रामक चीज नहीं है जिससे हमको लड़ना है, सबसे ज्यादा जरूरी तो आज भावनाएँ हैं जिनको हमे मजबूत बनाकर रखना है, उन लोगों के साथ वायरस के बारे में बात करने से बचें जो नकारात्मक हो सकते हैं, अपने जीवन में उन लोगों की ओर मुड़ें जो विचारशील, स्तर-प्रधान और अच्छे श्रोता हैं। यदि आपके पास ऐसे लोग नहीं है  जिस पर आप भरोसा करते हैं, तो ऐसे समय आपकी सच्ची साथी पुस्तकें हो सकती है, अच्छी पुस्तकों को चुने और खुद को मजबूत करें

ये  महामारी एक विशाल वैश्विक स्वास्थ्य संकट बन चुकी है। क्योंकि संकट से निपटने के लिए बड़े स्तर की आवश्यकता होती है जो  व्यवहार परिवर्तन और व्यक्तियों पर महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक बोझ डालता है, अंतर्दृष्टि और व्यवहार विज्ञान महामारी विज्ञानियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सिफारिशों के साथ मानव व्यवहार को संरेखित करने में मदद करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

 तनाव को विभिन्न तरीकों से  कम किया जा सकता है जैसे कि जॉगिंग के लिए जाना, अपने पसंदीदा गाने सुनना, और खाना पकाने से भी और सफाई। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि किताबें पढ़ना जादुई हो सकता है। जब भी आप अकेला या उदास महसूस करते हैं,  बस एक किताब खोलो और अपने आप को मुक्त शब्दों में खो दो । कहानियों और शब्दों का विशेष रूप से  मानव मन को पढ़ने और चंगा करने की शक्ति रखता है,जब आप कहानियां पढ़ते हैं, तो अपने खुद के लक्षण उन पात्रों में देख रहे हैं जो आप से संबंधित होते हैं

उनके और खुद के बीच समानताएं ढूंढंते हैं। आपको लगता है जैसे आप उस व्यक्ति के समान हैं जो कहानी में बात करता है, चरित्र की गैर-मौजूदगी के बावजूद, आप अभी भी उन्हें समझें और उनके लिए हर तरह की सोच रखकर आप उससे जुड़ते गए, इससे सहानुभूति का मानवीय भाव जगता है। जब आप उन  लोगों से मिलें जो कुछ हद तक आपके द्वारा लिखे गए पात्रों के समान हैं, आप उन्हें समझने लगते हैं और उनसे सहानुभूति रखते हैं।

पढ़ना हर चिंता को सुलझाने में मदद करता है,  मन में अच्छा सोचा हुआ मस्तिष्क पर सुखदायक प्रभाव डालता है। जैसे-जैसे आप पात्रों के माध्यम से कहानी में आगे बढ़ते हैं, आपके विचार और अवरोध आपके साथ यात्रा करते हैं। यह सच है, जब आपके पास एक किताब होती है, तो आपके पास एक  दोस्त होता है। पढ़ना अलगाव और अकेलेपन की भावनाओं को कम करता है। इन लक्षणों में कमी से कई रोगों का इलाज किया जा सकता है जैसे मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं- चिंता और अवसाद।

किताबें सबसे शांत और सबसे स्थिर दोस्त हैं; वे सबसे सुलभ हैं  वे काउंसलर और सबसे सुलभ और बुद्धिमान हैं, शिक्षक हैं हमारी । पुस्तकों में हमें नई दुनिया और अलग-अलग समय में ले जाने की शक्ति है, किताबें हमें अपने जीवन में महत्वपूर्ण क्षणों पर वापस ले जाने की अपार सकती रखती है।

मानव शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिस तरह भोजन की आवश्यकता होती है। उसी तरह ज्ञान अर्जन के लिए पुस्तकों की आवश्यकता है। वर्तमान समय में लोगों की रूचि पुस्तकों से कम हुई है मगर अब भी बहुत लोग पुस्तकों के प्रेमी हैं। स्वरूप बदला है अब ई-बुक और डिजिटल संस्करणों से भी लोग पुस्तक पढ़ते हैं। किताबें आज भी हमारी धरोहर है। किताबों में इतना खजाना छुपा है जितना कोई लुटेरा कभी लूट नहीं सकता। किताबें ज्ञान की भंडार होती हैं। इसे सच्चा मित्र और मानव समाज की अनमोल संपत्ति मानी गई है। पुस्तकें इंसानों को संस्कार देती है, उन्हें गढ़ती हैं।
  ----प्रियंका सौरभ   

हारी बाजी को जीतना सिखाती है साइकिल

----------------- ----प्रियंका सौरभ 

एक जमाना था जब भारत ही नहीं दुनिया भर में साइकिल का बोलबाला था, धीरे-धीरे इनकी जगह स्कूटर-मोटरसाइकिल और अब कारों ने ले ली,मगर जगह तो ले ली  पर साथ ही धरती पर इंसानों के बचने की जगह कम हो गई, कसरत के आभाव में इंसान सुविधा भोगी हो गया, परिणामस्वरुप उसे तरह-तरह की बीमारियों ने घेर लिया. ये सुनने में आपको हैरानी होगी कि अब दुनिया के अधिकांश डॉक्टर रोगियों को आधा घंटा साइकिल चलाने की नसीहत पर्ची पर लिखकर देने लगे है ताकि उनकी शारीरिक क्षमता बनी रहे और दवाइयों के कुप्रभाव न आये.



बचपन में तो हर किसी ने साइकिल  चलाई है लेकिन आज के इस दौर में साइकिल जैसी चीजें बहुत कम ही देखने को मिलती हैं। लोग आजकल मोटरसाइकिल  और कार से जाना ज्यादा पसंद करते हैं। मगर क्या आपको मालूम है कि साइकिल  आपके सेहत के लिए कितने फायदेमंद साबित हो सकती है। बचपन में जब हम साइकिल चलाते थे तो हमारी सेहत बनी रहती थी और हमे किसी भी बीमारी लगने का खतरा नहीं होता था। यहां तक कि साईकिल चलाने के बाद भी हम पूरा दिन एक्टिव रहते थे।

यही नहीं आज  पूरी दुनिया में सरकारें स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए साइकिल चलने को बढ़ावा देने में जुटे हैं  इस दिन लोगों में साइकिल चलाने के फायदे यानि पर्यावरण, सेहत और किफायती दामों वाले ट्रांसपोर्टनेशन के फायदों के बारे में जागरूक किया जाता है। आमतौर पर तेजी से वजन घटाने के लिए लोग अक्सर जिम में भी साइक्लिंग करना पसंद करते हैं। अप्रैल 2018 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 3 जून को अंतर्राष्ट्रीय विश्व साइकिल दिवस के रूप में घोषित किया। विश्व साइकिल दिवस के लिए संकल्प,साइकिल की विशिष्टता, दीर्घायु और बहुमुखी प्रतिभा को पहचानता है, जो दो शताब्दियों से उपयोग में है, और यह परिवहन का एक सरल, सस्ता, विश्वसनीय, स्वच्छ और पर्यावरणीय रूप से उपयुक्त स्थायी साधन है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रोफेसर लेस्ज़ेक सिबिल्स्की ने विश्व साइकिल दिवस के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को बढ़ावा देने के लिए अपने समाजशास्त्र वर्ग के साथ एक जमीनी स्तर पर अभियान का नेतृत्व किया, जो अंततः तुर्कमेनिस्तान और 56 अन्य देशों का समर्थन हासिल  करने में सफल रहा साइकिल दिवस के लिए मूल लोगो यूएन ब्लू और व्हाइट #जून 3 वर्ल्डबाइकसाइड  को आइजैक फेल्ड द्वारा डिजाइन किया गया था और साथ में एनीमेशन प्रोफेसर जॉन ईस्वानसन द्वारा सहयोग किया गया था। इसमें दुनिया भर के विभिन्न प्रकार के साइकिल चालकों को दर्शाया गया है।  लोगो के निचले भाग में हैशटैग #June3WorldByclDay है। मुख्य संदेश यह दिखाना है कि साइकिल मानवता से संबंधित है

विश्व साइकिल दिवस एक वैश्विक अवकाश है जिसका अर्थ सभी लोगों द्वारा किसी विशेषता की परवाह किए बिना आनंद लेना है। मानव प्रगति और उन्नति के प्रतीक के रूप में साइकिल के रूप में  सहिष्णुता, आपसी समझ और सम्मान और सामाजिक समावेश और शांति की संस्कृति बढ़ावा देता है ।  साइकिल "स्थायी परिवहन का प्रतीक है और एक सकारात्मक संदेश देती है।

विश्व साइकिल दिवस अब टाइप 1 और टाइप 2 मधुमेह वाले लोगों के लिए एक स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देने के साथ जोड़ा जा रहा है। रोजाना 15-30 मिनट साइकिल चलाने से पेट की चर्बी और वजन घटाने में मदद मिलती है।  अगर आप रात में ठीक से नींद नहीं ले पाते हैं, तो ऐसे में नियमित रूप से सुबह के समय 15-20 मिनट साइकिल चलाने से लाभ होता है। रोजाना सुबह के वक्त साइकिल चलाने से आपकी फिटनेस बरकरार रहती है। क्योंकि इससे ब्‍लड सेल्‍स और स्‍किन में ऑक्‍सीजन की पर्याप्‍त पूर्ति होती है आपकी त्‍वचा ज्‍यादा अच्‍छी और चमकदार होने के साथ पूरे दिन एनर्जेटिक फील करते हैं और हमेशा जवान दिखते हैं।

नियमित रूप से साइकिल चलाने पर तेजी से कैलोरी बर्न होती है, जिससे दिल की बीमारियों का खतरा कम होता है। जबकि यूनीवर्सिटी ऑफ कैरोलाइना की एक शोध के मुताबिक सप्ताह में 5 दिन 30 मिनट साइकिल चलाने से इम्यून सिस्टम मजबूत होता है। जिससे बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। साइकिल चलाने के फायदे साइकिल चलाने से सेहत के साथ जेब और पर्यावरण को भी सुरक्षित रखा जा सकता है। क्योंकि साइकिल, बाइक और कार की तुलना में सस्ती होती है और पेट्रोल, डीजल से होने वाले एयर पॉल्यूशन का भी खतरा नहीं रहता है।

 यही साइिकल हमारी फिल्मों में भी कई बार बेहतरीन तौर पर इस्तेमाल की गई है। बॉलीवुड के कई ऐसे गीत हैं जिन्हे हिंदी फिल्मों के लिए साइकिल पर ही फिल्माए गया है, हीरो हीरोइन के बीच रोमांस से लेकर, हीरोइन केसाथ छेड़छाड़ हो या फिर  कॉमेडी हो, कई ऐसे ही गीत है जिनको फिल्मकार साइिकल पर फिल्माना नहीं भूले  । यह भले ही उस दौर के गाने हो जब साइिकल क सवार करना भी एक शान क सवार माना जाता था, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि यह गाने आज भी हम और आप गुनगुनाते नज़र आते है।

जो जीता वही सिकंदर’ मॉडर्न दिनों की बात की जाए तो लोगों के ज़हन में यही फिल्म आती है। हालांकि हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर- 2’ में भी टाइगर के साईकल चलाने की वजह से, उस फिल्म की तुलना इस फिल्म से की गई थी। लेकिन जहां आमिर की उस फिल्म में साईकिल पर एक बहुत ही शानदार गीत को फिल्माया गया था, वहीं टाइगर की फिल्म में ऐसा कोई गीत नहीं था। जो जीता वही सिकंदर का गीत ‘हारी बाजी को जीतना जिसे आता है” कॉलेज में कंपटीशन के दौरान आज भी चलाया जाता है। दरअसल, आमिर खान की यह फिल्म कॉलेज लाइफ, उसमें होते कॉन्पिटिशन पर आधारित थी। यह गीत की खास बात है कि यह गीत हर किसी को अपनी हारी बाज़ी को जीतने के लिए मोटिवेट करता है।

बन के पंछी गाए प्यार का तराना’(पड़ोसन – 1968), नैनो में दर्पण है दर्पण में है कोई देखूं जिसे सुबह शाम’ (आरोप – 1973),मैंने कसम ली , मैने कसम ली(तेरे मेरे सपने – 1971),बॉलीवुड के कुछ ऐसे गीत, जिन्होनें हिन्दी फिल्म में साइकिल पर कुछ बेहतरीन गीतों को फिल्माया है। विश्व साईकिल दिवस पर इस गीतों को सुन आप भी अपने इस दिन को बेहतरीन कर सकते हैं।

------प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
ये समय है घायल पर्यावरण को सँवारने का
------------------------------प्रियंका सौरभ

लॉकडाउन के माध्यम से संघर्ष करने के बाद, नई चिंताओं और तनाव की बाढ़ के साथ, अंत में आराम करने का समय आ गया है।  यह निश्चित है कि, सामान्य स्थिति ’का एक संकेत हमारी घायल पृथ्वी पर लौटने और  पर्यावरण को सँवारने का है तो, इस बार विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के लिए, हमें एक साथ आना चाहिए और इस ग्रह की बेहतरी की दिशा में काम करना चाहिए।



इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस का विषय 'प्रकृति के लिए समय' है। जीवन का जश्न मनाने के लिए, विभिन्न प्रजातियों, अनिवार्यताओं पृथ्वी हमें नि: शुल्क आपूर्ति करती है, और इस ग्रह को अच्छी तरह से जानने के लिए, एक बार फिर, हमें अनुसंधान और नवाचारों के माध्यम से अर्जित अनंत ज्ञान में गोता लगाना चाहिए। और एक बार फिर, हमें टीम को सुलझाना चाहिए, हल करना चाहिए, और उस पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए कार्य करना चाहिए जो हमें निराश करता है।

कोरोना वायरस आज के समय में एक तरह का संकेत है, जो प्रकृति की खूबसूरती की ओर हमें ले जाता है. ये हमें इस बात का संकेत देता है कि अगर इसी तरह से स्वच्छ व सुरक्षित जलवायु हमें चाहिए तो भविष्य में अपने स्तर पर ही हमें और भी बड़े लॉकडाउन के लिए अभ्यास करना होगा, पर बिना कोविड-19 जैसे वायरस के. यह इस बात का भी संकेत देता है कि अगर हम पर्यावरण के अधिकारों का सम्मान नहीं करते हैं, तो कोविड-19 जैसे महामारियों का दंश झेलने के लिए हमें आगे भी तैयार रहना होगा.


जीवाश्म ईंधन उद्योग - फोसिल फ्यूज इंडस्ट्री - से ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन इस साल रिकॉर्ड 5 प्रतिशत की कमी के साथ 2.5 बिलियन टन घट सकता है. कोरोना वायरस महामारी के चरम पर होने के कारण इस जीवाश्म ईंधन की मांग में सबसे बड़ी गिरावट आई है. यही नहीं, महामारी की वजह से यात्रा, कार्य और उद्योगों पर अभूतपूर्व प्रतिबंधों ने हमारे घुटे हुए शहरों में भी अच्छी क्वालिटी की हवा के साथ अच्छे दिनों को सुनिश्चित कर दिया है. इस क्रम में पॉल्यूशन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन स्तर सभी महाद्वीपों में गिर गया है.

कोरोना वायरस महामारी आर्थिक गतिविधियों में वैश्विक कमी का कारण बनी  है, हालांकि यह चिंता का प्रमुख कारण है, पर ह्यूमन एक्टिविटीज के कम होने का पर्यावरण पर पॉजिटिव असर जरूर पड़ता है. अब देखिए न, इन दिनों औद्योगिक और परिवहन उत्सर्जन व अपशिष्ट निर्माण की तादाद कम हो गई है और औसत दर्जे का डेटा वायुमंडल, मिट्टी और पानी में प्रदूषकों के समाशोधन का कार्य कर रहा है. यह प्रभाव कार्बन उत्सर्जन के विपरीत भी है, जो एक दशक पहले वैश्विक वित्तीय दुर्घटना के बाद 5 प्रतिशत तक बढ़ गया था.

मई का महीना, जो आमतौर पर पत्तियों के अपघटन के कारण शिखर कार्बन उत्सर्जन को रिकॉर्ड करता है, में दर्ज किया गया है कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद हवा में प्रदूषकों का न्यूनतम स्तर क्या हो सकता है. सिर्फ भारत ने ही नहीं, बल्कि चीन और उत्तरी इटली ने भी अपने देश में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के लेवल में महत्वपूर्ण कमी दर्ज की है. लॉकडाउन के परिणामस्वरूप, मार्च और अप्रैल में दुनिया के प्रमुख शहरों में एयर क्वालिटी इंडेक्स में जबरदस्त सुधार हुआ है. कार्बन डाइऑक्साइड (ष्टह्र2), नाइट्रोजन ऑक्साइड (हृह्र&) और संबंधित ओजोन (ह्र3) के गठन व पार्टिकुलेट मैटर (क्करू) में फैक्ट्री और सड़क यातायात उत्सर्जन में भी कमी के कारण हवा की क्वालिटी में बड़े पैमाने पर सुधार हुआ है. साथ ही साथ जल निकाय भी साफ हो रहे हैं और यमुना व गंगा जैसी नदियों ने देशव्यापी तालाबंदी के लागू होने के बाद से बेहद अहम सुधार दिखे हैं.

इस स्थिति में जब सभी राष्ट्र कोरोना वायरस के साए में लगभग बंद हंै, तो पर्यावरण, परिवहन और उद्योग के नियमों का बेहतर कार्यान्वयन पर्यावरण पर ह्यूमन एक्टिविटीज के हार्मफुल इफैक्ट्स को कम करने में उपयोगी सिद्ध हुआ है, हालांकि इस तरह के विकास ने ग्लोबल प्रोडक्शन, उपभोग और रोजगारों के स्तर में भारी आर्थिक और सामाजिक झटके दिए हैं, लेकिन वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी जैसे मुद्दे भी इसी से जुड़े हुए हैं, इसलिए जब तक कोरोनो वायरस संकट आर्थिक गतिविधियों को कम करता रहेगा, कार्बन उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम ही रहेगा. देखा जाए तो यह बड़ा और टिकाऊ पर्यावरणीय सुधार है.
ग्लोबल लेवल पर वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से होने वाली मौतें हर साल 7 मिलियन मौतों के साथ महामारी के अनुपात में लगभग बराबर ही होती हैं.

इस समस्या को दूर करने के लिए भारत में भी एक जागृत आह्वान होना चाहिए. हां हालांकि, वायु प्रदूषण को कम करने के लिए लॉकडाउन का तरीका कोई आदर्श तरीका नहीं है, लेकिन प्रेजेंट कंडीशन में यह साबित करता है कि वायु प्रदूषण मानव निर्मित ही है और अब हमें यह भी पता चल गया है कि प्रदूषण को कम हम ही लोग कर सकते हैं. वर्तमान कोरोना वायरस संकट भारत को एक स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य में निवेश करने के अवसर दे रहा है, इस अवसर को हमें भुनाना ही होगा. अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक - जिनमें ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन शामिल हैं -  ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने वाले ये तम्व शक्तिशाली जलवायु कैंसर की तरह हैं. ये दुनियाभर में बड़ी आबादी के लिए भोजन, पानी और आर्थिक सुरक्षा को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं, अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों के प्रभाव एक प्रमुख विकास के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करते हैं जो त्वरित और महत्वपूर्ण वैश्विक कार्रवाई चाहते हैं, अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक उत्सर्जन को कम करने के उपाय अक्सर सुलभ और लागत प्रभावी होते हैं, और अगर जल्द लागू किए गए तो जलवायु के साथ-साथ लाखों लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के लिए तत्काल लाभदायक साबित हो सकते हैं.

जलवायु परिवर्तन पर विज्ञान के माध्यम से हम जनता के लिए खतरे को भांपने में विफल रहे हैं, जिससे तथ्यों का व्यापक खंडन हुआ है. आवास और जैव विविधता का नुकसान मानव समुदायों में फैलने वाले घातक वायरस और कोविड-19 जैसी बीमारियों के लिए स्थितियां बनाता है और अगर हम अपनी भूमि को नष्ट करना जारी रखते हैं, तो हम अपने पास मौजूद आवश्यक संसाधनों को भी नष्ट कर देंगे और इससे हमारी कृषि प्रणालियों को भी गहरा धक्का लगेगा.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर उठाए जाने वाले सख्त कदम भोजन और पानी की कमी, प्राकृतिक आपदाओं और समुद्र के स्तर में वृद्धि को कम कर सकती है, जिससे अनगिनत व्यक्तियों और समुदायों की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है. दुनिया भर में, स्वस्थ लोग अपनी कम्युनिटी में अधिक संवेदनशील लोगों की रक्षा के लिए अपनी लाइफ स्टाइल को बदल रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के लिए इसी तरह का समर्पण हमारी ऊर्जा खपत को काफी हद तक बदल सकता है.

सामान्य रूप से - जीवाश्म ईंधन को खोदना, जंगलों को काटना और लाभ, सुविधा व खपत के लिए हेल्थ को इग्नोर करना - विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दे रहा है. अब समय आ गया है जब प्रेजेंट कंडीशंस को देखते हुए अपनी धरती की सुरक्षा के लिए अहतियातन कदम उठाए जाएं.इस नजरिए से देखें तो कोरोना वायरस एक लक्षण है, एक संकेत है, जो प्रकृति की खूबसूरती की ओर हमें ले जाता है. ये हमें इस बात का संकेत देता है कि अगर इसी तरह से स्वच्छ व सुरक्षित जलवायु हमें चाहिए तो भविष्य में अपने स्तर पर ही और भी बड़े लॉकडाउन के लिए अभ्यास करना होगा, पर बिना कोविड-19 जैसे वायरस के. यह इस बात का संकेत देता है कि अगर हम पर्यावरण के अधिकारों का सम्मान नहीं करते हैं, तो कोविड-19 जैसे महामारियों का दंश झेलने के लिए हमें आगे भी तैयार रहना होगा.

अब समय आ गया है, हमें धरती मां की पुकार सुननी होगी. अपनी धरती को अगर हमने मां का दर्जा दिया है तो उसके साथ मां जैसी भावना से पेश भी आना होगा.वरना आधुनिक युग के महानतम वैज्ञानिक और ब्रह्मांड के कई रहस्यों को सुलझाने वाले खगोल विशेषज्ञ स्टीफन हॉकिंग की भविष्यवाणी का दर्द हमें झेलना होगा. उनका मानना था कि पृथ्वी पर हम मनुष्यों के दिन अब पूरे हो चले हैं. हम यहां दस लाख साल बिता चुके हैं. पृथ्वी की उम्र अब महज दो सौ से पांच सौ साल ही बची है. इसके बाद या तो कहीं से कोई धूमकेतु आकर इससे टकराएगा या सूरज का ताप इसे निगल जाने वाला है या कोई महामारी आएगी और यह धरती खाली हो जाएगी.

हॉकिंग के अनुसार मनुष्य को अगर एक या दस लाख साल और बचना है, तो उसे पृथ्वी को छोड़कर किसी दूसरे ग्रह पर शरण लेनी होगी. अब यह ग्रह कौन सा होगा, इसकी तलाश अभी बाकी है. इस तलाश की रफ्तार फिलहाल बहुत धीमी है. पृथ्वी का मौसम, तापमान और यहां जीवन की परिस्थितियां जिस तेज रफ्तार से बदल रही हैं, उन्हें देखते हुए उनकी इस भविष्यवाणी पर भरोसा न करने की कोई वजह नहीं दिखती, पर हां लॉकडाउन के बाद जिस तरह से हमारी धरती और आसपास की जलवायु का हाल बदला है, उसको देखते हुए हम अभी भी प्रकृति के प्रति सबक ले लें, तो बहुत कुछ बदल सकता है.  


----प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

खाद्य सुरक्षा अब और भी ज्यादा जरूरी
--------------------------प्रियंका सौरभ 

रोटी, कपड़ा और मकान को मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं कहा जाता है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए इंसान बहुत मेहनत करता है। भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां आम जनता को सुरक्षित भोजन के महत्व के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने अपनी दो एजेंसियों, खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के प्रयासों का नेतृत्व करने के लिए सौंपा है। दूसरा विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस (डब्ल्यूएफएसडी) 7 जून 2020 को मनाया जाएगा, ताकि खाद्य सुरक्षा, मानव स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि, कृषि, बाजार पहुंच, पर्यटन में योगदान को रोकने, पता लगाने और प्रबंधन करने में मदद करने के लिए ध्यान आकर्षित किया जा सके।



2019 में पहले उत्सव की सफलता के बाद, इस वर्ष फिर से डब्ल्यूएफएसडी ने "द फ्यूचर ऑफ फूड सेफ्टी" की छत्रछाया में खाद्य सुरक्षा के पैमाने पर प्रतिबद्धता को मजबूत करने के लिए डब्ल्यूएचओ, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के साथ मिलकर सदस्य राष्ट्रों को विश्व खाद्य सुरक्षा  दिवस मनाने के प्रयासों को नया रूप-रंग दिया है, "खाद्य सुरक्षा, सभी का व्यवसाय" विषय के तहत,  वैश्विक खाद्य सुरक्षा जागरूकता को बढ़ावा देगा और सभी के देशों और निर्णय निर्माताओं, निजी क्षेत्र, नागरिक समाज, संयुक्त राष्ट्र संगठनों और आम जनता को इस बारे जागरूक होने का सन्देश पूरी दुनिया तक पहुंचाएगा।

लॉकडाउन के दौरान बेईमान तत्व खाद्य पदार्थों में मिलवाट कर अनुचित लाभ उठा सकते हैं या स्थिति का फायदा उठाकर मिलावट और धोखेबाजी में लिप्त हो सकते हैं मुनाफाखोरी  पहले से ही तनावपूर्ण जनसंख्या के स्वास्थ्य और धन को गंभीरता से प्रभावित कर सकती है, सामान्यतः बाजार में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में मिलावट का संशय बना रहता है। दालें, अनाज, दूध, मसाले, घी से लेकर सब्जी व फल तक कोई भी खाद्य पदार्थ मिलावट से अछूता नहीं है। आज मिलावट का सबसे अधिक कुप्रभाव हमारी रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाली जरूरत की वस्तुओं पर ही पड़ रहा है।

 कोरोना के चलते वैसे भी इस समय हर किसी को मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता की जरूरत है। शरीर के पोषण के लिए हमें खाद्य पदार्थों की प्रतिदिन आवश्यकता होती है। शरीर को स्वस्थ रखने हेतु प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन तथा खनिज लवण आदि की पर्याप्त मात्रा को आहार में शामिल करना आवश्यक है तथा ये सभी पोषक तत्व संतुलित आहार से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यह तभी संभव है, जब बाजार में मिलने वाली खाद्य सामग्री, दालें, अनाज, दुग्ध उत्पाद, मसाले, तेल इत्यादि मिलावटरहित हों। खाद्य अपमिश्रण से उत्पाद की गुणवत्ता काफी कम हो जाती है। खाद्य पदार्थों में सस्ते रंजक इत्यादि की। मिलावट करने से उत्पाद तो आकर्षक दिखने लगता है, परंतु पोषकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं।

सामान्य रूप से किसी खाद्य पदार्थ में कोई बाहरी तत्व मिला दिया जाए या उसमें से कोई मूल्यवान पोषक तत्व निकाल लिया जाए या भोज्य पदार्थ को अनुचित ढंग से संग्रहीत किया जाए तो उसकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। इसलिए उस खाद्य सामग्री या भोज्य पदार्थ को मिलावटयुक्त कहा जाएगा। भारत सरकार द्वारा खाद्य सामग्री की मिलावट की रोकथाम तथा उपभोक्ताओं को शुद्ध आहार उपलब्ध कराने के लिए सन् 1954 में खाद्य अपमिश्रण अधिनियम (पीएफए एक्ट 1954) लागू किया गया। 

उपभोक्ताओं के लिए शुद्ध खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करना स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की जिम्मेदारी है।इस समय मूल खाद्य पदार्थ तथा मिलावटी खाद्य पदार्थ में भेद करना काफी मुश्किल है। अपमिश्रित आहार का उपयोग करने से शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और शारीरिक विकार उत्पन्न होने की आशंका बढ़ जाती है। खाद्य अपमिश्रण से जहां कोरोना के दौरे में रोग प्रतिरोधक क्षमता घटेगी और करना बढ़ेगा वही अन्य बीमारियां भी जैसे आखों की रोशनी जाना, हृदय संबन्धित रोग, लीवर खराब होना, कुष्ठ रोग, आहार तंत्र के रोग, पक्षाघात व कैंसर जैसे रोग भी ज्यादा प्रभवि हो सकते हैं।

इस समय लोग ज्यादातर घरों और चूल्हों तक सीमित हैं। वो ज्यादा समय नहीं दे सकते और न ही इस दौरान पता कर सकते की बाजार में क्या है, जो जैसे भी मिल पा रहा है जल्दबाजी में खरीद रहे है, समय भी ऐसा ही है और न ही उनके पास ऐसे समय खरीददारी के विकल्प बचे है। यह काफी प्रेरणादायक है कि इस तरह के  के समय के दौरान खाद्य खाद्य और औषधि प्रशासन की सुरक्षा विंग विभाग ने निरीक्षण की आवश्यक पहल की है।  अच्छा व्यवसाय सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न खाद्य प्रतिष्ठान उत्पादित किए जा रहे खाने की गुणवत्ता की प्रथाओं और रखरखाव को ताकपर रखकर आज कार्य कर रहे हैं। सरकार को ऐसे समय ये  सुनिश्चित करने  की जरूरत है कि  इस समय कोई भी अनुचित लाभ न उठा सके।

तालाबंदी के कारण लोगों को खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता पर भी संदेह हो रहा है।  बाजार में बेचे जा रहे खाने के सामानों की गलत और भ्रामक जानकारी की सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बाढ़ आ गई हैं।  ये ज्यादा चौंकाने वाला और डरावना है, प्रशासन को इस पर कठोर करवाई कर लगाम लगानी होगी।  कई जगह घटनाये सच भी है जहां  खाद्य पदार्थ जो सब स्टैंडर्ड और पुट्रेड थे बिना किसी कानून का संकोच या डर के और बाजार में बेच दिए गए।

हालांकि वहां वांछनीय कार्रवाई की गई और खराब गुणवत्ता वाले खाने को या तो जब्त कर लिया गया या नष्ट कर दिया, लेकिन विचार करने के लिए बिंदु यह है कि हो सकता है। कई अन्य ऐसे लोग हैं जो इस तरह के दुर्भावना में लिप्त हैं और वो लोगों के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर रहे है। वक्त की जरूरत है कि उक्त विभाग खाद्य पदार्थों में मिलावट के खिलाफ अपनी मुहिम को और तेज करें और  कोई भी व्यक्ति इसमें शामिल है उनके खिलाफ सख्त करवाई तुरंत अमल में लाये।

मिलावटी पदार्थों से बचने और अपमिश्रण की पहचान के लिए प्रशासन के साथ-साथ हमें भी    जागरूक होने की जरूरत है। खाद्य अपमिश्रण एक अपराध है। खाद्य अपमिश्रण अधिनियम,1954 के अंतर्गत किसी भी व्यापारी या विक्रेता को दोषी पाये जाने पर कम से कम 6 महीने का कारावास, जो कि तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त मानदण्ड का भी प्रावधान है। खाद्य पदार्थों में मानव स्वास्थ्य के लिए अहितकर है और इसका रोकथाम में उपभोक्ताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक उपभोक्ता (विशेषकर गृहिणियों) को अपमिश्रण से बचने हेतु जागरूक होना चाहिए। इसके लिए कुछ आवश्यक बिंदुओं का ध्यान रखना चाहिए जैसे खुली खाद्य सामग्री न खरीदें।

अधिकतर मानक प्रमाण चिन्ह (एगमार्क, एफपीओ , आईएसआई, हॉलमार्क) अंकित सामग्री खरीदें तथा खरीदे जाने वाली सामग्री के गुणों, रंग, शुद्धता आदि की समुचित जानकारी रखें।  दुकानदारों व सत्यापित कम्पनियों का सामान लें तथा जहां तक हो सके पैकेज्ड सामान का उपयोग करते समय कम्पनी का नाम व पता, खाद्य पैकिंग व समाप्ति की तिथि, सामान का वजन, गुणवत्ता लेबल का अवश्य ध्यान रखें क्योंकि स्वस्थ और निरोगी जीवन ही सफलता की कुंजी है। कोरोना काल में वैसे भी हमें और ज्यादा जागरूक बनने की जरूरत है। महामारियों से लड़ने के लिए शरीर का तंदरूस्त और मजबूत होना  कितना जरूरी है ये हमने बखूबी जान लिया है, इसके लिए खाद्य सुरक्षा अब और भी ज्यादा जरूरी हो गई है।

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

जीने के लिए महासागरों को बचाना होगा 

-----------------------प्रियंका सौरभ 

जीवन में महासागरों के महत्व को समझते हुए पर हम पृथ्वी वासियों का ध्यान महासागरों के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखने की ओर अवश्य ही जाना चाहिए। वर्तमान में मानवीय गतिविधियों का असर समुद्रों पर भी दिखने लगा है। समुद्र में ऑक्सीजन का स्तर लगातार घटता जा रहा है और तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल में भारी मात्रा में प्रदूषणकारी तत्वों के मिलने से जीवन संकट में हैं। तेलवाहक जहाजों से तेल के रिसाव के कारण समुद्री जल के मटमैला होने पर उसमें सूर्य का प्रकाश गहराई तक नहीं पहुँच पाता, जिससे वहाँ जीवन को पनपने में परेशानी होती है और उन स्थानों पर जैव-विविधता भी प्रभावित हो रही है। महासागरों के तटीय क्षेत्रों में भी दिनों-दिन प्रदूषण का बढ़ता स्तर चिंताजनक है।



दुनियाभर में आठ जून के दिन विश्व महासागर दिवस  मनाया जाता है। महासागर पृथ्वी पर न सिर्फ जीवन का प्रतीक है बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी अहम भूमिका निभाते है। इसका मुख्य मकसद लोगों को समुद्र में बढ़ रहे प्रदूषण और उससे होने वाले खतरों के बारे में जागरूक करना है। पृथ्वी पर महासागरों के बगैर जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल ही लगता है, क्योंकि समंदर को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद उपयोगी माना जाता है, बावजूद इसके महासागरों में तेजी से प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। महासागरों में गिरने वाले प्लास्टिक प्रदूषण के वजह से महासागर धीरे-धीरे अपशिष्ट होते जा रहे हैं। जिसका समुद्री जीवों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ रहा है क्योंकि समुद्री जीव गलती से प्लास्टिक को अपना भोजन समझ लेते हैं जिससे उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।

हर साल विश्व महासागर दिवस को अलग-अलग थीम के अनुसार मनाया जाता है। इस बार विश्व महासागर दिवस 2020 का विषय है ‘एक सतत महासागर के लिए नवाचार' ,विश्व महासागर दिवस मनाए जाने के पीछे मकसद केवल महासागरों के प्रति जागरुकता फैलाना नहीं है,विश्वभर में महासागरों की अहमियत और भविष्य में इनके समक्ष खड़ी चुनौतियों से भी अवगत करवाया जाता है। इतना ही नहीं, इस दिवस पर कई महासागरीय पहलू जैसे-खाद्य सुरक्षा, जैव-विविधता, पारिस्थितिक संतुलन,सामुद्रिक संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल, जलवायु में हो रहा परिवर्तन आदि पर प्रकाश डालना है।

पिछले दशकों में, ग्लोबल वार्मिंग से बर्फ की चादरें और ग्लेशियर को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है, बर्फ के आवरण और आर्कटिक की समुद्री सीमा और मोटाई में कमी आई है, और तापमान में वृद्धि हुई है। ग्लोबल मीन सी लेवल बढ़ रहा है, इन बदलावों ने स्थलीय और मीठे पानी की प्रजातियों और पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित किया है, तटीय पारिस्थितिकी तंत्र समुद्र के गर्म होने से प्रभावित होते हैं, जिसमें तीव्र समुद्री ऊष्मातापी, अम्लीकरण, ऑक्सीजन की हानि, लवणता और समुद्र स्तर में वृद्धि शामिल है। समुद्र और जमीन पर मानव गतिविधियों से प्रतिकूल प्रभाव पहले से ही निवास स्थान, जैव विविधता, साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र के कामकाज और सेवाओं पर देखे जाते हैं।

महासागर और क्रायोस्फीयर (बर्फीला आर्किटक क्षेत्र) पृथ्वी प्रणाली में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सूर्य की ऊर्जा से संचालित, बड़ी मात्रा में ऊर्जा, पानी और जैव-रासायनिक तत्व मुख्य रूप से कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का पृथ्वी के सभी घटकों के बीच आदान-प्रदान किया जाता है। सूर्य से पृथ्वी की सतह की ऊर्जा विभिन्न रूपों  में परिवर्तित हो जाती है, जो वायुमंडल में मौसम प्रणाली और समुद्र में धाराओं, भूमि और समुद्र में ईंधन प्रकाश संश्लेषण, और मौलिक रूप से बदल जाती है।  महासागर में गर्मी को संग्रहीत करने और जारी करने की एक बड़ी क्षमता है, महासागर की बड़ी ऊष्मा क्षमता वायुमंडल की तुलना जलवायु परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार होती है। सतह महासागर से वाष्पीकरण वायुमंडल में पानी का मुख्य स्रोत है, जिसे वर्षा के रूप में पृथ्वी की सतह पर वापस ले जाया जाता है।

समुद्र और क्रायोस्फीयर कई तरीकों से आपस में जुड़े हुए हैं। समुद्र से वाष्पीकरण बर्फबारी प्रदान करता है जो बर्फ की चादर और ग्लेशियरों का निर्माण करता है और भूमि पर जमे हुए पानी की बड़ी मात्रा को जमा करता है। महासागर का तापमान और समुद्र का स्तर बर्फ की चादर, ग्लेशियर और बर्फ-शेल्फ स्थिरता को उन जगहों पर प्रभावित करता है जहां बर्फ के पानी का आधार समुद्र के पानी के सीधे संपर्क में है। समुद्र के तापमान में परिवर्तन के लिए बर्फ के पिघलने की प्रतिक्रिया का मतलब है कि समुद्र के तापमान में मामूली वृद्धि से बर्फ की चादर या बर्फ के शेल्फ के बड़े हिस्से को तेजी से पिघलाने और अस्थिर करने की क्षमता है।

भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के कारण चार भारतीय तटीय शहर- कोलकाता, मुंबई, सूरत और चेन्नई वैश्विक स्तर पर 45 ऐसे तटीय शहरों में से हैं, जहां समुद्र के स्तर में 50 सेमी की वृद्धि से भी बाढ़ आ जाएगी। वास्तव में, चरम समुद्र तल की घटनाएं जो अतीत में एक सदी में एक बार हुआ करती थीं, हर साल कई क्षेत्रों में मध्य शताब्दी तक घटित होंगी।  हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र में दस प्रमुख नदी घाटियों में एशिया को सबसे मजबूत प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। इनमें टीएन शान, कुन लून, पामीर, हिंदू कुश, काराकोरम, हिमालय और हेंगडुआन और उच्च ऊंचाई वाले तिब्बती पठार क्षेत्र शामिल हैं। वर्षा पैटर्न में बड़े पैमाने पर अनिश्चितता होगी। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों के पहाड़ी और निचले इलाकों में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि के कारण बाढ़, अधिक बार और गंभीर हो जाएगी।

जलवायु परिवर्तन महासागर के पारिस्थितिकी तंत्रों पर भारी पड़ रहा है और समुद्र में अधिकांश लोगों के जीवन के लिए एक विनाशकारी भविष्य का चित्रण करता है, इसलिए आज हमें समुद्र के वातावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभावों के बारे में चिंताओं को दूर करने के लिए काफी आगे की जांच की आवश्यकता है। मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को घटाकर नीतिगत विकास के लिए  नवीकरणीय ऊर्जा; शिपिंग और परिवहन; तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा और बहाली; मत्स्य पालन, जलीय कृषि और स्थानांतरण आहार; और सीबेड में कार्बन भंडारण पर ध्यान देने की जरूरत है।

वर्तमान भविष्यवाणियों के अनुसार, वार्मिंग परिदृश्य के आधार पर, क्षेत्रीय तापमान 2100 तक 3.5 डिग्री सेल्सियस और 6 डिग्री सेल्सियस के बीच बढ़ने की संभावना है, जिससे ग्लेशियर की मात्रा में 36 से 64 प्रतिशत तक का महत्वपूर्ण नुकसान होगा। यह पानी के प्रवाह और इसकी उपलब्धता को प्रभावित करेगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण जल संसाधनों में  घरेलू उपयोग, कृषि और जलविद्युत के लिए सीधे-सीधे "प्रभावित" होगा, सभी देशों को समुद्र के भीतर अक्षय ऊर्जा संसाधनों और ऊर्जा कुशल तटीय और अपतटीय बुनियादी ढांचे के अध्ययन और विकास के लिए समय रहते नए प्रयास शुरू करने चाहिए। और जीने के लिए महासागरों को बचाने में जुट जाना चाहिए।


----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

अन्धविश्वास से उपजी कोरोना महामाई 

----------------------प्रियंका सौरभ 

कोरोना वायरस से पूरी दुनिया लड़ रही है। कोरोना से छुटकारा पाने के लिए कई देश इसकी वैक्सीन बनाने पर रिसर्च कर रहे हैं लेकिन अभी तक कोरोना की वैक्सीन तैयार नहीं हो पाई हैं। ऐसे में कोरोना को लेकर तमाम तरह की अफवाहें, अंधविश्वास और भ्रम भी फैलाए जा रहे हैं।कोविड-19 महामारी का कारण बने कोरोनावायरस ने देश में  धीरे-धीरे भगवान का रूप ले लिया है. अंधविश्वास में लोग इसे ‘कोरोना माई’ बुला रहे हैं. वायरस को ये नया नाम देने वाले, देवी मानकर देश  के कई हिस्सों में इसकी पूजा कर रहे हैं. पूजा के दौरान ‘कोरोना माई’ को लौंग, लड्डू और फ़ूल चढ़ाए जा रहे हैं. महिलाएं कोरोना को माई मानकर पूजा कर रहीं हैं। जिसकी पूजा करने से उसका प्रकोप खत्म हो जाएगा। 



पूजा करते समय महिलाओं के इस झुण्ड ने ना तो मास्क पहना है, ना सोशल डिस्टेंसिंग की है। जो कोरोना को रोकने लिए सबसे जरूरी और कारगार कदम हैं। पूरब के गांवों से आए ‘कोरोना माई’ की पूजा के विडियो वायरल हो रहे हैं। गांव की स्त्रियों का शाम के वक्त सिवान (गांव की सीमा) में झाड़-झंखाड़ वाली किसी जगह पर छोटे-छोटे गड्ढे खोदकर उनकी तली को समतल करना, उसकी अच्छे से लिपाई करना, दिया जलाना और वहीं एक कतार में नौ लड्डू रखना। हर लड्डू से सटा एक-एक गुड़हल का फूल रखना और हर फूल के पास एक-एक सिंदूर का टीका लगाकर, हाथ जोड़कर मन ही मन घर-परिवार सुरक्षित रखने की विनती करना। फिर थाली, घंटी, घंटा बजाकर थोड़ी-थोड़ी बदली हुई पारंपरिक धुनों में ‘बिदेसवा से आई’ इस देवी का एक सामूहिक भजन और आयोजन खत्म होते ही गड्ढों को फूल-मिठाई समेत पाटकर पूजा स्थल से विदाई लेना, किसी उत्सव से कम नहीं लगता, जैसे हम सामान्य दिनों में मंदिरों और पूजा स्थलों में चाव से बिना किसी डर और संकोच के जाते है। 

अन्धविश्वास की इंतेहा बताने वाली ये घटना इस दौर में हो रही है,  ये सोचकर मन सहम जाता हैं, जो स्वाभाविक है। मजे की बात यह कि ऐसा कहने वालों में वे संभ्रांत जन अधिक हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले कोरोना के ही संदर्भ में इससे मिलते-जुलते कर्मकांड अपने शहरी आवासों में संपन्न किए हैं। देखने में ये भी आया है कि जैसे ही लॉक डाउन से छूट मिली है। धार्मिक संस्थाओं में भीड़ जुटना शुरू हो गई है। ग्रामीण इलाकों में महिलाएं मंदिरों में झुण्ड बनाकर जा रही है। ये कैसी आस्था है, कैसे अन्धविश्वास है? जब महामारी का एकदम डर आया तो इन सभी संस्थाओं के दरवाजे बंद थे। पुलिसवाले और स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी ही एकमात्र आस बचे थे, जो लोगों के जीवन को अपनी जान दांव पर लगाकर बचा रहे थे। और अब अन्धविश्वास में डूबे लोगों को पत्थरों में भगवान नज़र आ रहा है। जो इनको इस महामारी से बचाएगा। ये घटनाएं अज्ञानता और तथाकतित धार्मिक ठेकेदारों की घिनौनी करतूत है, जिनकी दुकानें लॉक डाउन में बंद हो गई है।

 मेरा मानना है कि आज हम जिन लोगों को देवी-देवता बनाकर पूजा-अर्चना कर रहे है, वो अपने दौर के अच्छे और सामाजिक लोग थे, जिन्होंने समाज कि भलाई में अपनी ज़िंदगी लगा दी। उनमें दिव्यशक्ति और भगवान जैसा कुछ नहीं था।  वो अपने समय के अच्छे लोग थे और अच्छे कार्यों के फलस्वरूप समाज में मान्यता प्राप्त थे। उद्धरण के लिए दशरथ पुत्र राम, ये भी तो एक आम मानव थे जो अपने सद्कर्मों से श्रीराम हो गए।  वक्त के साथ ढोंगी लोगों ने उनके नाम पर संस्थाएं बनाकर लोगों को लूटना शुरू कर दिया और धर्म को व्यवसाय बना दिया।   प्रचलित देवी-देवताओं को प्रसन्नचित करने के लिए अन्धविश्वास में अंधे होकर ऐसे वरदान प्राप्ति की पूजा-पाठ के बजाये हमें उन व्यक्तित्वों की अच्छी शिक्षा को अपनाने की जरूरत है।

कोरोना के बढ़ते आंकड़ों के बीच दूर दराज के गांवों में इस बीमारी को लेकर फैल रहे अंधविश्वास से जुड़े किस्से सामने आना चिंतनीय हैं। यह वाकई तकलीफदेह और इस बीमारी को विस्तार देने वाली बात है कि महिलाओं ने अंधविश्वास के चलते कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी को देवी मान लिया है और इन महिलाओं का मानना है कि कोरोना माई की पूजा करने से इस महामारी से बचा जा सकता है।सोशल डिस्टेंसिंग की पालना और मास्क लगाने जैसी जरूरी गाइडलाइंस की अनदेखी करते हुए महिलाएं समूह में एकत्रित होकर कोरोना वायरस को भगाने के लिए पूजा अर्चना कर रही हैं।

 इन महिलाओं का मानना है कि कोरोना बीमारी नहीं, देवी के क्रोध का कहर है जिसको पूजा करने पर कोरोना माई प्रसन्न होकर अपना क्रोध शांत कर लेंगी। जिससे यह महामारी खत्म हो जाएगी। आज जब ये बीमारी गांवों-कस्बों तक  पहुंच चुकी है तब महिलाओं का  जागरूक और सजग होने के बजाय अंधविश्वास की जद्दोजहद में फंसना बेहद खतरनाक है। कोरोना वायरस के संक्रमण को दैवीय आपदा मानकर पूज रही स्त्रियां यह भी नहीं समझ रहीं कि वे इस महामारी को और विस्तार देने का माध्यम बन रही हैं। नासमझी की हद ही है कि अंधविश्वास के फंदे में फंसी ग्रामीण इलाकों की महिलाएं खुद अपने और अपने परिवार के लिए खतरा मोल ले रही हैं। इस बीमारी की गंभीरता को समझने के बजाय इससे मुक्ति पाने का रास्ता ऐसे अन्धविश्वास में ढूंढ रही हैं।

दरअसल, कोरोना से जुड़ा यह अन्धविश्वास भय और अशिक्षा का मेल है। आस्था के नाम पर उपजा महिलाओं का यह अजब-गजब व्यवहार जागरूकता की कमी और इस त्रासदी से जुड़ी भयावह स्थितियों को न समझ पाने का नतीजा है। जो वाकई अशिक्षा और जागरूकता की कमी की स्थितियों को सामने लाता है। अगर ऐसे ही होता रहा तो भविष्य में अंधविश्वास की ऐसी खबरें और उनसे जुड़ी अफवाहें अंधानुकरण और विवेकहीन सोच को बढ़ावा देने वाली साबित होंगी।
आज जब भारत में संक्रमण के मामले दुनिया में सबसे ज्यादा होने के नजदीक है, ऐसे में यह अंधविश्वासी सोच इस लड़ाई को और मुश्किल बना देगी। इतना ही नहीं अंधविश्वास के चलते की जा रही पूजा-अर्चना की खबरें यूं ही आती रहीं तो यह अंधविश्वास भी व्यवसाय बन जाएगा। हमारे यहां पहले से भी कई बीमारियों के मामले में लोग झाड़-फूंक जैसे इलाज के तरीकों में उलझे हुए हैं। कोई हैरानी नहीं कारोबारी सोच के चलते इस फेहरिस्त में कोरोना जैसे भयावह संक्रमण को भी शामिल कर लिया जाए। आपदा के इस दौर में ऐसे अंधविश्वास हालतों को भयावह बना देंगे।

कोरोना महामारी से लड़ने के लिए आशंकाएं नहीं बल्कि जागरूकता और विश्वास जरूरी है। ऐसे में दैवीय आपदा मानकर कोरोना भगाने के अंधविश्वास के नाम पर हो रहे ऐसे जमावड़े कोरोना जैसी संक्रामक बीमारी को बढ़ावा देंगे। अफसोसनाक ही है कि महिलाएं आज भी अंधविश्वास के फेर में फंसी हैं।  इस महामारी से हम विज्ञान का हाथ थामकर ही निकल सकते हैं। किसी भी महिला या पुरुष को अंधविश्वास में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि कोरोना एक वायरस है। इसको लेकर जो साइंटिफिक फैक्ट है उसके अनुसार सतर्कता बरतने की सलाह मानना बेहद जरूरी है। शासन-प्रशासन के निर्देश का पालन करके ही कोरोना से बचा जा सकता है, जरूरी है कि प्रशासनिक अमला भी ऐसे अन्धविश्वास को मानने और इससे जुड़ी अफवाहें फैलाने वालों के साथ सख्ती बरते। ताकि रूढ़ीवादी सोच ही नहीं इस बीमारी के विस्तार पाने पर भी लगाम लग सके।

 

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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