Friday 31 July 2020

सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों की महामारी

------------------------------------प्रियंका सौरभ 

विश्वव्यापी कोरोना महामारी के जनजीवन पर तमाम तरह के घातक प्रभाव नजर आए हैं, जिनमें सूचना-तंत्र में ऐसी मनगढ़ंत खबरों का प्रवाह भी शामिल हैं, जो समाज में नफरत-भय को बढ़ावा देता है। इस गंभीर चुनौती पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने भी हाल ही में चिंता जतायी है। उनका मानना था कि कोरोना वायरस की महामारी ने नफरत और अज्ञात भय की सुनामी फैला दी है। हालांकि, उन्होंने अपनी चिंता में किसी का नाम नहीं लिया ताकि किसी देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि खराब न हो, लेकिन देश में यह चिंता किसी से छिपी नहीं है कि सोशल मीडिया का किस हद तक दुरुपयोग होता रहा है। आधी-अधूरी जानकारियों को सांप्रदायिक रंग देकर निहित स्वार्थी तत्वों के मंसूबों को प्रोत्साहित किया गया है। दरअसल, भारतीय जनमानस का संवेदनशील मन ऐसे तत्वों के लिए उर्वरा भूमि उपलब्ध कराता है, जिसके चलते वे तथ्यों की तार्किकता पर ध्यान दिये बिना भावनाओं में बह जाते हैं। यह विचार किये बिना कि समाचार की हकीकत क्या है, वे ऐसी खबरों के सोशल मीडिया में प्रसार में लग जाते हैं। खबरों की ऐसी महामारी जैविक महामारियों से भी ज्यादा खतरनाक है



एक समस्या से संबंधित अधिक मात्रा में सूचना समाधान को और अधिक कठिन बना देती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एक  सही और गलत जानकारी दोनों की अत्यधिक मात्रा दुनिया भर में फैल रही है। सबसे खराब स्थिति यह है कि गलत जानकारी संभावित रूप से वायरस की तुलना में तेजी से फैल रही है, जिससे लोग खराब तरीके से निर्णय ले सकते हैं। कई विवादित वीडियो में एडिटिंग द्वारा छेड़छाड़ की बातें सामने आई हैं। सांप्रदायिक भेदभाव फैलाने की साजिशों का जाल प्रतिदिन बिछता है। अब तो  देश की शीर्ष अदालत भी इस बाबत पर चिंता जताती रही है। पहले लॉकडाउन के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी था कि महामारी से बड़ी समस्या इससे उपजा भय और घबराहट को खत्म करने की है, जिसको लेकर भ्रामक खबरें फैलायी जा रही थीं। कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र में गलत सूचनाएं देने, पॉजिटिव रोगियों के खिलाफ कथित अफवाहें फैलाने व फर्जी खबरों को लेकर कई मामले दर्ज किये गये। डब्लूएचओ ने भी गलत सूचना और भय को सबसे बड़ी चुनौतियों के रूप में घोषित किया है और कहा है कि ये नए कोरोनोवायरस से भी ज्यादा खतरनाक है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन कोरोनावायरस रोग (कोविद-19) के प्रकोप के प्रसार को धीमा करने के प्रयास का नेतृत्व कर रहा है। लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और अन्य आउटलेट्स के माध्यम से गलत सूचना  एक वैश्विक महामारी की तरह तेजी से फैल रही है - जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या है। गलत सूचना, अफवाहें, आदिएक सुनामी की तरह फ़ैल रही है
और इसको घटाने-बढ़ाने में सोशल मीडिया एक वायरस की तरह काम कर रहा है जो तेजी से  इनको और आगे बढ़ाते हैं। भारत जैसे देश में 240 मिलियन से अधिक लोग फेसबुक पर हैं और वो किसी भी चीज के बारे में खबरें और कहानियां साझा करने के लिए इस एकल मैसेजिंग ऐप की ओर रुख करते हैं। अक्सर, इसे समाचार के प्रमुख स्रोत के रूप में उपयोग करते हुए वो  गलत सूचना अपने व्यवहार में उतार लेते है। संकट के समय में, साइबर सुरक्षा महत्वपूर्ण है, लॉकडाउन या आंदोलन प्रतिबंधों के तहत बड़ी संख्या में लोग अब दूरस्थ रूप से काम कर रहे हैं और घर रहकर अध्ययन कर रहे हैं, जिससे ऑनलाइन माध्यम ने उनको साइबर अपराध के लिए अतिसंवेदनशील बना दिया गया है।

कोविद-19 को अंतरराष्ट्रीय चिंता का  सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किए जाने के तुरंत बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन की जोखिम संचार टीम ने एक नया सूचना प्लेटफ़ॉर्म लॉन्च किया जिसका नाम  इनफार्मेशन  नेटवर्क  फॉर  एपिडेमिक्स  (EPI-WIN) है, जिसका उद्देश्य एम्पलीफायरों की एक श्रृंखला का उपयोग करके विशिष्ट लक्ष्य समूह अनुरूप जानकारी साझा करना है। डब्ल्यूएचओ यूनिसेफ और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रहा है, जिनके पास जोखिम संचार में व्यापक अनुभव है, जैसे कि इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसाइटीज। सोशल-मीडिया कंपनियों को अब पहले से कहीं ज्यादा सही और विश्वसनीय जानकारी को क्रमबद्ध, रैंक और प्राथमिकता देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, पिनटेरेस्ट जैसी वेब कंपनियों ने पहले ही अपने होमपेज पर कोविद सम्बंधित हेडर और लिंक पेश किए हैं। अब बहुत जरूरी हो गया है कि कोविद-19 के बारे में तथ्य-जाँच और कठिन मानकों की एक प्रणाली बनाए रखें और उन संदेशों, हैशटैग और ट्रांसमीटरों को बाहर निकाले जो सही जानकारी के रास्ते में बढ़ा बन रहे हैं, आम जनता को साक्ष्य-आधारित जानकारी प्रदान करने में पारंपरिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, इसके बाद सोशल मीडिया का भी ये कर्तव्य बनता है।

सामाजिक और पारंपरिक मीडिया दोनों के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य समुदाय मीडिया को "बेहतर ढंग से समझने में मदद करें क्योंकि मीडिया कभी-कभी सबूत से आगे निकल जाता है"। आज हम पर एक उपयोगकर्ताओं के रूप में, एक संदेश को तुरंत साझा करने, टिप्पणी करने और दूसरों द्वारा साझा किए जाने वाले डोपामाइन रश के लिए सलाह या विकल्प लेने के लिए बेहतर तरीके खोजने की जिम्मेदारी है। एक समाज के रूप में, कोरोनोवायरस के लिए हमारी वैश्विक प्रतिक्रिया की तरह, हम नीचे के फैसलों पर भरोसा नहीं कर सकते।आज हमें ऊपर से निर्णायक नेतृत्व की जरूरत है। जिन डिजिटल राष्ट्रों में हम निवास करते हैं, फेसबुक, फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप, यूट्यूब, ट्विटर, टिकटोक को समझाना चाहिए कि वो कैसा कार्य करते हैं है और उन्हें क्या करने कि अब जरूरत है, इस समय  मार्क जुकरबर्ग (फेसबुक / व्हाट्सएप), सुंदर पिचाई (गूगल/ यूट्यूब), जैक डोरसी (ट्विटर) और झांग यिमिंग (टिक्कॉक) को खुद अपनी कंपनियों के लिए वैसे ही सख्त निर्णय लेने की आवश्यकता है जैसा कि कुछ राजनीतिक नेताओं ने किया है। भविष्य के लिए यह अधिक उपयोगी होगा।

आज का वक्त कदम बढ़ाने और सोशल मीडिया परकठोर मानकों को लागू करने का समय है। भारत के अलावा, संपूर्ण विकासशील देश महामारी के बारे में खबरों के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर निर्भर है।  दरअसल,फर्जी खबरों के स्रोत की पहचान और दोषियों के विरुद्ध कड़े दंड के अभाव में इनके प्रसार को बल मिला है, जिसके लिए नागरिकों को जागरूक करने की भी सख्त जरूरत है। पुलिस प्रशासन के बीच बेहतर तालमेल, सरकार की सख्ती और नागरिकों की जागरूकता से इस समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए। यहां केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका जरूरी है। उसके प्रयासों में सत्य को सामने लाने के लिए नीतियों में पारदर्शिता की भी जरूरत है। यदि ऐसा नहीं होता तो ज्वलनशील खबरों को एक महामारी बनने से नहीं रोका जा सकता। सरकार को संवाद के विकल्प खुले रखने चाहिए ताकि अविश्वास व घृणा फैलाने वालों के मंसूबे धरे रह जायें।

----प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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